Sunday, December 3, 2017

अमेरिका की लड़ाई का नया तरीका; दुनिया के तीन-चौथाई हिस्से में तैनात हैं स्पेशल फोर्स के जवान, ट्रेनिंग देते हैं, खेती भी करते हैं

साभार: भास्कर समाचार
पश्चिमी अफ्रीकाके घने जंगलों के बीच से जब ट्रक और लैंडक्रूजर का काफिला निकला तो चारों ओर धूल उड़ने लगी। माली से लगे नाइजर के
सीमावर्ती क्षेत्र में दो दिन चले अभियान के बाद अमेरिकी सेना के स्पेशल फोर्स के 12 जवान और नाइजर के 30 सैनिकों का यह काफिला लौट रहा था। 110 मील लंबे रास्ते पर वह थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि मोटरसाइकिल और ट्रकों में सवार 50 से ज्यादा आतंकियों ने हमला कर दिया। मुठभेड़ में 4 अमेरिकी सैनिकों की मौत हो गई। 4 अक्टूबर को हुई इस घटना की खबर जब वॉशिंगटन पहुंची तो अधिकांश लोग यही सोचकर हैरान थे कि अमेरिकी सेना नाइजर में क्या कर रही थी। बाद में पता चला कि अभियान का असली मकसद इब्राहिम डोंडू शेफू को पकड़ना था। वह कुछ दिन पहले इस्लामिक स्टेट की शीर्षस्तरीय मीटिंग के लिए इस इलाके में मौजूद था। सुरक्षा विशेषज्ञों को भी इससे पहले यह पता नहीं था कि नाइजर में अमेरिकी सैनिकों को तैनात किया गया है, जबकि हाल के वर्षों में यह संख्या बढ़कर 800 हो चुकी है। अधिकांश देशवासियों को इसका पता तब चला जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अभियान में मृत एक सैनिक की पत्नी से कहासुनी हो गई। 
पूरी दुनिया में अमेरिकी स्पेशल कमांडो की बढ़ती तैनाती का नाइजर एक छोटा उदाहरण है। किसी भी समय पर सेना की एलीट फोर्स के 8 हजार से ज्यादा जवान, जिनमें नेवी सील, आर्मी डेल्टा फोर्स, स्पेशल फोर्स आदि शामिल हैं, अलग-अलग देशों में तैनात होते हैं। 2001 में ऐसे जवानों की संख्या 2900 थी, 2017 आते-आते वे दुनिया के 143 देशों यानी तीन-चौथाई हिस्से में तैनात किए जा चुके हैं। दुनिया में कहीं भी अशांति हो, अमेरिका की स्पेशल ऑपरेशन फोर्स वहां पहुंच जाती है। इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और अन्य देशों में वे आतंकियों को मारने-पकड़ने का अभियान चला रहे हैं। मिस्त्र और सऊदी अरब में वे सैनिकों को विपरीत परिस्थितियों से मुकाबला करने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। पूर्ववर्ती सोवियत संघ के देशों में वे रूसी प्रभाव को कम करने के काम में लगे हैं। दक्षिण कोरिया में उनकी तैनाती उत्तर कोरिया को काबू में रखने के लिए की गई है। 
पिछले 16 वर्षों में इस तरह के विशेष अभियान ही अमेरिका के लिए लड़ाई का नया तरीका बन गए हैं। स्पेशल फोर्स का इस्तेमाल पहले परंपरागत सैन्य अभियानों को मजबूती देने के लिए होता था, लेकिन देश के सबसे ज्यादा प्रशिक्षित ये सैनिक अब प्रशिक्षक, कूटनीतिज्ञ और संकटग्रस्त देशों के निर्माण के कामों में लगे हैं। हजारों सैनिकों की जगह स्पेशल फोर्स की छोटी टुकड़ी का आसान विकल्प हर राष्ट्रपति के कार्यकाल में आजमाया गया है, हालांकि यह बेहद खर्चीला है। अशांत देशों में इनकी तैनाती से अमेरिका के खिलाफ घृणा की भावना और बढ़ती है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि अमेरिका को सुरक्षित रखने के मकसद में ये कहां फिट बैठते हैं, यह स्पष्ट नहीं है। स्पेशल फोर्स के पूर्व कमांडर जनरल डोनाल्ड बलडॉक कहते हैं कि इस मामले में कोई रणनीति ही नहीं बनाई गई है। 
इससे स्पेशल फोर्सेस पर भी बुरा असर पड़ रहा है। इस साल अब तक चार देशों में स्पेशल फोर्स के 11 जवानों की मौत हो चुकी है। बिना सोचे-समझे तैनाती का नतीजा यह है कि पेंटागन को एक टास्क फोर्स का गठन करना पड़ा है जो जवानों में बढ़ती नशाखोरी, पारिवारिक समस्याओं और आत्महत्या की समीक्षा कर रहा है। इन अभियानों की रफ्तार इतनी तेज है कि लड़ाई के दौरान भी जवानों से गलतियों की आशंका ज्यादा होती है।

विशेष अभियानों पर बढ़ी निर्भरता अमेरिकी जरूरतों से पैदा हुई है। 11 सितंबर, 2001 को अल कायदा के हमले के बाद यह स्पष्ट हो गया कि परंपरागत सेना अमेरिका को सुरक्षित नहीं रख सकती। संसद ने राष्ट्रपति ो अल कायदा के खिलाफ अभियान की अनुमति दी और स्पेशल फोर्स इसकी सबसे महत्वपूर्ण कड़ी बन गए। जॉर्ज डब्ल्यू बुश राष्ट्रपति बने तो इराक ऐसे अभियानों का केंद्र बन गया। बराक ओबामा ने पद संभालने के बाद दो लड़ाईयां बंद करने का भरोसा दिलाया, लेकिन स्पेशल कमांडो के लिए परेशानियां और बढ़ गईं। ओबामा ने युद्ध कार्यों में लगे परंपरागत सैनिकों की संख्या 1.5 लाख से कम कर 14 हजार कर दी, लेकिन स्पेशल कमांडो इराक, अफगानिस्तान या दूसरे देशों में बने रहे। ओबामा ने हालांकि स्पेशल ऑपरेशंस का सालाना बजट बढ़ाकर 10.4 अरब डॉलर कर दिया और 15 हजार नए जवानों की भर्ती भी की। ट्रम्प के कार्यकाल में भी यह ट्रेंड बना हुआ है। स्पेशल फोर्स के उपयोग के मामले में उन्होंने आक्रामक नीति अपनाई है। 
स्पेशल ऑपरेशन की अल्फा टीम की पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा तैनाती होती है। इसके लिए चुने गए जवानों के चयन से लेकर ट्रेनिंग में एक से दो साल का समय लगता है। वे सैन्य प्रशिक्षण के अलावा उस देश की स्थानीय संस्कृति और भाषाएं सीखते हैं जहां उनकी तैनाती होनी है। उन्हें मेडिकल या खेती जैसे कामों का खास प्रशिक्षण भी दिया जाता है। लेकिन उनका मुख्य काम सैन्य अभियानों को अंजाम देना ही है। रिटायर्ड कमांडो रिचर्ड लैंब बताते हैं कि स्पेशल फोर्स को छह महीने की तैनाती के बाद छह महीने की छुट्‌टी का प्रावधान है, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। जवानों को बिना छुट्‌टी के दूसरी जगह पर भेज दिया जाता है। रक्षामंत्री जेम्स मैटिस का मानना है कि सेना इस समस्या का हल तलाश रही है। एक विकल्प यह हो सकता है कि कुछ जिम्मेदारियां परंपरागत सेना को दी जाएं। अगले साल की शुरुआत में इसे अफगानिस्तान में तैनात किया जाएगा। अमेरकी संसद के अकाउंटेबिलिटी ऑफिस ने चेतावनी दी है कि स्पेशल ऑपरेशन फोर्स की संख्या बढ़ी है, लेकिन उनके अभियानों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा बढ़ी है। इसके नतीजे खतरनाक हो सकते हैं, क्योंकि मौजूदा उपायों से हालात बेहतर होने की उम्मीद नहीं दिखती।