एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
उसने मुझसे बहुत ही सरल-सा प्रश्न पूछा था, 'सैंटा साल में एक बार ही क्यों आते हैं, रोज क्यों नहीं आते?' यदि किसी को लगता है कि यह कितना आसान प्रश्न था तो उसे यह जरूर जानना चाहिए कि यह प्रश्न पूछा किसने है और मुझे इसका जवाब देना इतना कठिन क्यों लगा। यह प्रश्न ऐसे चेहरे ने किया था, जिसकी आंखों के काले घेरे ने उन चमकदार दांतों को ओठों के पीछे छिपा दिया था, जो खुलने मुस्कराने के लिए संघर्ष कर रहे थे। मैं पहली बार मेरे डॉक्टर दोस्तों के साथ आया था,जो साल में एक या दो बार ऐसे बच्चों को सेलिब्रेशन के लिए ले जाते हैं। ये बच्चे अपने स्कूल लौटना चाहते हैं। कंचे, लंगड़ी, खो-खो जैसे बिना खर्च वाले खेल दोस्तों के साथ खेलना चाहते थे। वे फिलहाल जहां हैं उसकी गंध पसंद नहीं करते, जो मेरे दोस्त का अस्पताल है। रोज जो दवाइयां उन्हें खिलाई जाती हैं उसके स्वाद से उन्हें नफरत है। लेकिन, उनकी ऐसी सारी इच्छाएं पूरी नहीं हो सकती थीं, क्योंकि उन्हें वह भयानक रोग है, जिसे ब्लड कैंसर कहते हंै।
मेरे डॉक्टर दोस्त को बेंगलुरू के 25 वर्षीय कार्तिक से प्रेरणा मिली, जो वहां के किदवई मैमोरियल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑन्कोलॉजी के 80 बच्चों के लिए सैंटा बन जाते हैं। कार्तिक तो स्थूल काया के हैं, बूढ़े और उनके पास तोहफों का कोई झोला है। लेकिन, वे हर वीकेंड वहां जाकर उनके साथ कुछ घंटे बिताते हैं। तोहफे देने के उनके तरीके में शामिल हैं उन्हें साहस की कहानियां सुनाना। वे क्रिसमस कैरल या न्यू ईयर जिंगल्स ही नहीं बल्कि फिल्म गीत भी सुनाते हैं, जोक्स मारते हैं, कुछ जादू के खेल दिखाते हैं और हर कुछ माह बाद अपना रक्त दान करते हैं। ये सारे प्रयास इसलिए होते हैं कि वहां का हर बच्चा अपने शरीर और स्थायी रूप से सीरिंज लगे हाथों में छटपटाने वाली पीड़ा को कुछ समय भूलकर मुस्कराए। आज वे उनके लिए सच्चे अर्थों में 'अन्ना' (बड़ा भाई) हंै और उत्साहपूर्ण गलबहियां उनका वहां स्वागत करती हैं।
मैंने उन लड़कों से कहा, 'सैंटा को पूरी दुनिया में घूमना पड़ता है, इसलिए वे साल में एक बार ही पाते हैं।' तत्काल प्रश्न आया, जिसकी मैं अपेक्षा कर रहा था,'यदि हमें किसी और दिन कुछ चाहिए हो तो किसे कहें?' मैंने कहा, 'हम एल्फ से'। ये सैंटा के दोस्त हैं, जो तोहफे का झोला तैयार करने में उनकी मदद करते हैं। सैंटा की कहानी के काल्पनिक पात्र। लेकिन जब उसने यह कहा तो मैं कुछ जवाब नहीं दे सका, 'मैं आपको पहली बार देख रहा हूं, आप तो कभी आए नहीं।' मैंने उसे कसकर गले लगाकर आगे प्रश्न पूछने से रोक दिया और कहा, 'माफ करना दोस्त, चूंकि अब मैं तुम्हें जानता हूं तो मैं मिलने आता रहूंगा।' मैं सोच रहा था कि मैं कैसे अपना वादा पूरा कर पाऊंगा।
फंडा यह है कि झूठ अच्छा है या बुरा नहीं जानता। लेकिन, यदि झूठ जरूरतमंदों के दिल में उम्मीद जगाए तो वह निश्चित रूप से बुरा नहीं है।
साभार: भास्कर समाचार
इस हफ्ते हर भारतीय शहर, मॉल और होटल में लाल और सफेद रंग छाया हुआ था, जो क्रिसमस के आगमन का अहसास करा रहा था। हम सबने युवा-वृद्ध, धनी गरीब सभी को तोहफों का अपना झोला लिए सैंटा के साथ
सेल्फी लेते देखा होगा। क्योंकि यह ख्यात किरदार आपके भीतर सौहार्द की ऐसी भावनाएं भर देता है, जिन्हें शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल होता है। इस रविवार की दोपहर हम कुछ दोस्त -जिनमें दो डॉक्टर थे- आठ साल के तीन बच्चों के साथ थे। हम मॉल गए और एक बच्चे ने मुझसे प्रश्न पूछा, जिसने मुझे हिला दिया, क्योंकि उसके प्रश्न ने मेरा पाखंडी व्यवहार उजागर कर दिया। मैंने वहां से जाने के लिए खेद जताया और जल्दी से पास के वॉशरूम में चला गया। खुद को संभाला और नकली-सी मुस्कान लेकर एक जवाब के साथ लौटा। उसने मुझसे बहुत ही सरल-सा प्रश्न पूछा था, 'सैंटा साल में एक बार ही क्यों आते हैं, रोज क्यों नहीं आते?' यदि किसी को लगता है कि यह कितना आसान प्रश्न था तो उसे यह जरूर जानना चाहिए कि यह प्रश्न पूछा किसने है और मुझे इसका जवाब देना इतना कठिन क्यों लगा। यह प्रश्न ऐसे चेहरे ने किया था, जिसकी आंखों के काले घेरे ने उन चमकदार दांतों को ओठों के पीछे छिपा दिया था, जो खुलने मुस्कराने के लिए संघर्ष कर रहे थे। मैं पहली बार मेरे डॉक्टर दोस्तों के साथ आया था,जो साल में एक या दो बार ऐसे बच्चों को सेलिब्रेशन के लिए ले जाते हैं। ये बच्चे अपने स्कूल लौटना चाहते हैं। कंचे, लंगड़ी, खो-खो जैसे बिना खर्च वाले खेल दोस्तों के साथ खेलना चाहते थे। वे फिलहाल जहां हैं उसकी गंध पसंद नहीं करते, जो मेरे दोस्त का अस्पताल है। रोज जो दवाइयां उन्हें खिलाई जाती हैं उसके स्वाद से उन्हें नफरत है। लेकिन, उनकी ऐसी सारी इच्छाएं पूरी नहीं हो सकती थीं, क्योंकि उन्हें वह भयानक रोग है, जिसे ब्लड कैंसर कहते हंै।
मेरे डॉक्टर दोस्त को बेंगलुरू के 25 वर्षीय कार्तिक से प्रेरणा मिली, जो वहां के किदवई मैमोरियल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑन्कोलॉजी के 80 बच्चों के लिए सैंटा बन जाते हैं। कार्तिक तो स्थूल काया के हैं, बूढ़े और उनके पास तोहफों का कोई झोला है। लेकिन, वे हर वीकेंड वहां जाकर उनके साथ कुछ घंटे बिताते हैं। तोहफे देने के उनके तरीके में शामिल हैं उन्हें साहस की कहानियां सुनाना। वे क्रिसमस कैरल या न्यू ईयर जिंगल्स ही नहीं बल्कि फिल्म गीत भी सुनाते हैं, जोक्स मारते हैं, कुछ जादू के खेल दिखाते हैं और हर कुछ माह बाद अपना रक्त दान करते हैं। ये सारे प्रयास इसलिए होते हैं कि वहां का हर बच्चा अपने शरीर और स्थायी रूप से सीरिंज लगे हाथों में छटपटाने वाली पीड़ा को कुछ समय भूलकर मुस्कराए। आज वे उनके लिए सच्चे अर्थों में 'अन्ना' (बड़ा भाई) हंै और उत्साहपूर्ण गलबहियां उनका वहां स्वागत करती हैं।
मैंने उन लड़कों से कहा, 'सैंटा को पूरी दुनिया में घूमना पड़ता है, इसलिए वे साल में एक बार ही पाते हैं।' तत्काल प्रश्न आया, जिसकी मैं अपेक्षा कर रहा था,'यदि हमें किसी और दिन कुछ चाहिए हो तो किसे कहें?' मैंने कहा, 'हम एल्फ से'। ये सैंटा के दोस्त हैं, जो तोहफे का झोला तैयार करने में उनकी मदद करते हैं। सैंटा की कहानी के काल्पनिक पात्र। लेकिन जब उसने यह कहा तो मैं कुछ जवाब नहीं दे सका, 'मैं आपको पहली बार देख रहा हूं, आप तो कभी आए नहीं।' मैंने उसे कसकर गले लगाकर आगे प्रश्न पूछने से रोक दिया और कहा, 'माफ करना दोस्त, चूंकि अब मैं तुम्हें जानता हूं तो मैं मिलने आता रहूंगा।' मैं सोच रहा था कि मैं कैसे अपना वादा पूरा कर पाऊंगा।
फंडा यह है कि झूठ अच्छा है या बुरा नहीं जानता। लेकिन, यदि झूठ जरूरतमंदों के दिल में उम्मीद जगाए तो वह निश्चित रूप से बुरा नहीं है।