साभार: भास्कर समाचार
बहस से मिलने वाली क्षणिक विजय दरअसल खोखली होती है। इससे सामने वाले के विचार नहीं बदलते हैं। बल्कि उसके मन में द्वेश और दुर्भावना उत्पन्न होती है। कुछ बोले बिना अपने कार्य से लोगों को प्रभावित
करना ज्यादा असरदार होता है। मोटिवेशनल स्पीकर टोनी गैस्किन्स का मानना है कि बहस करना शोर करने जैसा है। बहस करके अपनी बात मनवाने या जीतने की कोशिश करने में दिक्कत यह होती है कि आप यकीन से कभी नहीं कह सकते कि सामने वाले पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है। हो सकता है वह आपसे सहमत दिख रहा हो लेकिन अंदर आपसे द्वेश कर रहा हो। बहस में सामने वाला अपने मूड और असुरक्षा के आधार पर आपके कहे शब्दों का मतलब निकालता है। अच्छे से अच्छे तर्क की भी कोई ठोस नींव नहीं होती है। किसी के साथ बहस करने के कुछ ही दिन बाद हम सिर्फ आदत की वजह से अपने पुराने विचारों पर वापस लौट आते हैं। काम ज्यादा प्रभावी और अर्थपूर्ण होता है। बाल्तेसर ग्रेशियन ने कहा था कि सत्य आमतौर पर सुनाई नहीं दिखाई देता है। सर क्रिस्टोफर रेन इस बात के जीते-जागते उदाहरण थे। वे इंग्लैंड के सबसे मशहूर वास्तुविद थे। उनके लंबे करियर में ग्राहकों ने उन्हें डिजाइन बदलने के बारे में बहुत से अव्यावहारिक सुझाव दिए। लेकिन उन्होंने कभी अपने ग्राहकों से बहस नहीं की। अपने काम के जरिए ही उन्होंने खुद को बार-बार सही साबित किया। काम के माध्यम से अपने विचार प्रकट करने से आपके विरोधी रक्षात्मक नहीं होते हैं, इसलिए आसानी से आपकी बात मान जाते हैं।