जगमोहन सिंह राजपूत (शिक्षाविद,पूर्व डायरेक्टर, एनसीईआरटी)
नई शिक्षा नीति से अनगिनत अपेक्षाएं हैं। नई नीति में सरकारी स्कूलों की घटती साख, अध्यापकों की देश में हर स्तर पर कमी, निजीकरण और व्यापारीकरण, शोध, इनोवेशन और गुणवत्ता से जुड़े प्रश्नों के उत्तर हम खोजना चाहेंगे। गुणवत्ता तभी पूर्ण मानी जाएगी जब वह कौशल विकास और व्यक्तित्व विकास के पक्षों को उतना ही या उससे भी अधिक महत्व दे जितना आज मात्र अंक नियंत्रित ज्ञान प्राप्त करने की व्यवस्था में दिया जा रहा है। देश में अनेक राज्यों में परीक्षा में नकल तथा प्रायोगिक परीक्षाओं में घोर धांधली के कारण लाखों बच्चों का भविष्य बर्बाद होता है। इस दिशा में अब नई टेक्नोलॉजी के आने के बाद सुधार की बहुत संभावनाएं उभरी हैं। सुधार का पता 2018 में होने जा रही परीक्षाओं में पता लगेगा।
शिथिलता भी शिक्षा व्यवस्था का बड़ा दोष है। अनेक केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति में देरी हुई। मूल्यों की शिक्षा के अभाव तथा सामान्य जीवन में उनके क्षरण के परिणाम अब शीर्ष स्तर तक दिखाई देने लगे हैं। विश्व-रैंकिंग में भारतीय संस्थान होने पर चिंता व्यक्त की जाती रही है। पहली बार मंत्रालय ने अपनी रैंकिंग व्यवस्था को संरचना तथा स्वरूप दिया। नैक (नेशनल असेसमेंट एंड अक्रेडिटेशन कौंसिल) की कार्य प्रणाली में बड़े स्तर पर परिवर्तन कर उसे अधिक प्रभावशाली बनाया गया है। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) ने, जो अपनी साख के निम्नतम स्तर पर जा चुकी थी, इस वर्ष साहस और सजगता का परिचय दिया। लगभग एक हजार फर्जी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं के बंद होने की स्थिति गई है। अब अध्यापक प्रशिक्षण के केवल दो वर्षीय तथा चार वर्षीय प्रशिक्षण कार्यक्रम ही स्वीकार्य होंगें। राष्ट्रीय मुक्त शिक्षा संस्थान (एनाइओएस) ने 15 लाख अध्यापकों को 'ऑनलाइन' प्रशिक्षण देने का कार्य प्रारम्भ किया है, जिस पर सबकी निगाहें रहेंगी।
सीबीएसई को अपने उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए अब अधिक समय मिल सकेगा, क्योंकि सरकार ने पात्रता परीक्षाओं के अनावश्यक बोझ से उसे मुक्त करने का सही निर्णय लिया है और ऐसी परीक्षाओं के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक नई संस्था के निर्माण को स्वीकृति दी है। अतिथि अध्यापक तथा शिक्षाकर्मी जैसे प्रावधान समाप्त नहीं हो पाए हैं। शिक्षा संस्थानों में यदि उचित अनुपात में अध्यापक ही नहीं होंगे तो गुणवत्ता सुधार की चर्चा बेमानी होगी। विश्वविद्यालय अनूदान आयोग (यूजीसी) दो कारणों से सारे वर्ष चर्चा में रहा। एक, उसका अपना भविष्य क्या है? दूसरा, वहां लगभग आठ महीने से अध्यक्ष और एक साल से अधिक समय से उपाध्यक्ष पदों पर नियुक्ति होना। बीस अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय बनाने के केंद्र सरकार के निर्णय को लेकर भारी उत्सुकता है। संस्थाओं के अध्यक्षों/निदेशकों/कुलपतियों की नियुक्ति पद खाली होने के एक महीने पहले घोषित हो जानी चाहिए। 7वें वेतन आयोग के बाद उच्च शिक्षा संस्थानों में नए वेतनमान लागू होने में देरी भी अप्रत्याशित है। संस्थाओं के अध्यक्षों/निदेशकों/कुलपतियों की नियुक्ति पद खाली होने के एक महीने पहले घोषित हो जानी चाहिए। स्कूल शिक्षा का स्तर बृहद रूप से तभी सुधर सकता है, जब राज्य सरकारंे ईमानदारी से अध्यापकों की नियमित नियुक्ति पारदर्शी तरीके से करने की कटिबद्धता दिखाएं। अतिथि अध्यापक तथा शिक्षाकर्मी जैसे प्रावधान समाप्त नहीं हो पाए हैं। शिक्षा संस्थानों में यदि उचित अनुपात में अध्यापक ह नहीं होंगे तो गुणवत्ता सुधार की चर्चा बेमानी होगी। इस दिशा में इस वर्ष भी कोई बहुत आशाजनक स्थिति निर्मित नहीं हुई। इस वर्ष शिक्षा के क्षेत्र में निराशा घटी नहीं हैं लेकिन, अपेक्षाएं भी धुंधली नहीं पड़ी हैं। सबसे बड़ी चुनौती शिक्षा संस्थाओं में उस वातावरण को तैयार करने की है, जहां अध्यापक और विद्यार्थी ज्ञान के सर्जन और समझ का साथ-साथ मिलकर आदान-प्रादान करते हैं और सर्वजनहित में उसके उपयोग की संभावनाओं का आकलन कर इनोवेशन करते हैं।
साभार: भास्कर समाचार
वर्ष 2017 में शिक्षा नीति आने की सबसे बड़ी संभावना बनी थी। इसके पहले राष्ट्रीय स्तर पर 1968, 1986 तथा 1992 में शिक्षा नीति का निर्माण हुआ था। टीएसआर सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में नीति निर्माण का प्रारूप
तैयार करने वाली समिति ने मई 2016 में अपना मसौदा केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री को सौंपा। उसे सामान्यजन तक पहुंचाने के लिए मंत्रालय की अाधिकारिक वेबसाइट पर डाला गया। विरोध करने वाले सक्रिय हो गए, नए सुझाव देने वाले भी आगे आए। नए मंत्री आए और सरकार ने एक और समिति बनाने का निर्णय लिया। अब वैज्ञानिक डॉक्टर कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में समिति बनी। यह समिति भी लगभग इसी तरह आगे बढ़ रही है। कहा गया कि नई शिक्षा नीति का प्रारूप दिसम्बर 2017 तक जाएगा! नई शिक्षा नीति से अनगिनत अपेक्षाएं हैं। नई नीति में सरकारी स्कूलों की घटती साख, अध्यापकों की देश में हर स्तर पर कमी, निजीकरण और व्यापारीकरण, शोध, इनोवेशन और गुणवत्ता से जुड़े प्रश्नों के उत्तर हम खोजना चाहेंगे। गुणवत्ता तभी पूर्ण मानी जाएगी जब वह कौशल विकास और व्यक्तित्व विकास के पक्षों को उतना ही या उससे भी अधिक महत्व दे जितना आज मात्र अंक नियंत्रित ज्ञान प्राप्त करने की व्यवस्था में दिया जा रहा है। देश में अनेक राज्यों में परीक्षा में नकल तथा प्रायोगिक परीक्षाओं में घोर धांधली के कारण लाखों बच्चों का भविष्य बर्बाद होता है। इस दिशा में अब नई टेक्नोलॉजी के आने के बाद सुधार की बहुत संभावनाएं उभरी हैं। सुधार का पता 2018 में होने जा रही परीक्षाओं में पता लगेगा।
शिथिलता भी शिक्षा व्यवस्था का बड़ा दोष है। अनेक केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति में देरी हुई। मूल्यों की शिक्षा के अभाव तथा सामान्य जीवन में उनके क्षरण के परिणाम अब शीर्ष स्तर तक दिखाई देने लगे हैं। विश्व-रैंकिंग में भारतीय संस्थान होने पर चिंता व्यक्त की जाती रही है। पहली बार मंत्रालय ने अपनी रैंकिंग व्यवस्था को संरचना तथा स्वरूप दिया। नैक (नेशनल असेसमेंट एंड अक्रेडिटेशन कौंसिल) की कार्य प्रणाली में बड़े स्तर पर परिवर्तन कर उसे अधिक प्रभावशाली बनाया गया है। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) ने, जो अपनी साख के निम्नतम स्तर पर जा चुकी थी, इस वर्ष साहस और सजगता का परिचय दिया। लगभग एक हजार फर्जी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं के बंद होने की स्थिति गई है। अब अध्यापक प्रशिक्षण के केवल दो वर्षीय तथा चार वर्षीय प्रशिक्षण कार्यक्रम ही स्वीकार्य होंगें। राष्ट्रीय मुक्त शिक्षा संस्थान (एनाइओएस) ने 15 लाख अध्यापकों को 'ऑनलाइन' प्रशिक्षण देने का कार्य प्रारम्भ किया है, जिस पर सबकी निगाहें रहेंगी।
सीबीएसई को अपने उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए अब अधिक समय मिल सकेगा, क्योंकि सरकार ने पात्रता परीक्षाओं के अनावश्यक बोझ से उसे मुक्त करने का सही निर्णय लिया है और ऐसी परीक्षाओं के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक नई संस्था के निर्माण को स्वीकृति दी है। अतिथि अध्यापक तथा शिक्षाकर्मी जैसे प्रावधान समाप्त नहीं हो पाए हैं। शिक्षा संस्थानों में यदि उचित अनुपात में अध्यापक ही नहीं होंगे तो गुणवत्ता सुधार की चर्चा बेमानी होगी। विश्वविद्यालय अनूदान आयोग (यूजीसी) दो कारणों से सारे वर्ष चर्चा में रहा। एक, उसका अपना भविष्य क्या है? दूसरा, वहां लगभग आठ महीने से अध्यक्ष और एक साल से अधिक समय से उपाध्यक्ष पदों पर नियुक्ति होना। बीस अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय बनाने के केंद्र सरकार के निर्णय को लेकर भारी उत्सुकता है। संस्थाओं के अध्यक्षों/निदेशकों/कुलपतियों की नियुक्ति पद खाली होने के एक महीने पहले घोषित हो जानी चाहिए। 7वें वेतन आयोग के बाद उच्च शिक्षा संस्थानों में नए वेतनमान लागू होने में देरी भी अप्रत्याशित है। संस्थाओं के अध्यक्षों/निदेशकों/कुलपतियों की नियुक्ति पद खाली होने के एक महीने पहले घोषित हो जानी चाहिए। स्कूल शिक्षा का स्तर बृहद रूप से तभी सुधर सकता है, जब राज्य सरकारंे ईमानदारी से अध्यापकों की नियमित नियुक्ति पारदर्शी तरीके से करने की कटिबद्धता दिखाएं। अतिथि अध्यापक तथा शिक्षाकर्मी जैसे प्रावधान समाप्त नहीं हो पाए हैं। शिक्षा संस्थानों में यदि उचित अनुपात में अध्यापक ह नहीं होंगे तो गुणवत्ता सुधार की चर्चा बेमानी होगी। इस दिशा में इस वर्ष भी कोई बहुत आशाजनक स्थिति निर्मित नहीं हुई। इस वर्ष शिक्षा के क्षेत्र में निराशा घटी नहीं हैं लेकिन, अपेक्षाएं भी धुंधली नहीं पड़ी हैं। सबसे बड़ी चुनौती शिक्षा संस्थाओं में उस वातावरण को तैयार करने की है, जहां अध्यापक और विद्यार्थी ज्ञान के सर्जन और समझ का साथ-साथ मिलकर आदान-प्रादान करते हैं और सर्वजनहित में उसके उपयोग की संभावनाओं का आकलन कर इनोवेशन करते हैं।