Saturday, December 2, 2017

मैनेजमेंट: प्रेम और करुणा लग्ज़री नहीं, आवश्यकताएं हैं

एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)साभार: भास्कर समाचार
जब आप बच्चे थे तो तोहफा मिलने से बेहतर कोई बात नहीं होती थी। खूबसूरती से पैक किया तोहफा ऐसी रहस्यमयी कहानी लगती, जिसका अंत निश्चित ही शानदार होता था। आपको ठीक-ठीक तो पता नहीं होता था
कि इसमें क्या है लेकिन, आप जानते थे कि यह आपके लिए है और शायद ऐसी कोई चीज जो आप चाहते थे। हम सब अंतत: ऐसी उम्र में पहुंच जाते हैं, जब तोहफे देना उतना ही रोमांचक हो जाता है, जितना बचपन में तोहफे प्राप्त करना। गुरुवार को मुझे ऐसा ही एक अनुभव मिला। 
मैं मुंबई एयरपोर्ट पर 40 से ज्यादा मेहमानों की अगवानी के लिए इंतजार कर रहा था, जो मेरे मित्र के बेटे के विवाह समारोह में शरीक होने रहे थे। मित्र ने मेरी मदद मांगी, क्योंकि एक तो मैं एयरपोर्ट के नज़दीक रहता हूं और दूसरा मैं एयरपोर्ट की प्रक्रियाओं को कुछ बेहतर समझता हूं। मुझे एयरपोर्ट पर पहुंचते देखकर मेरे मित्र और उनके बेटे अभीक मुखर्जी ने राहत महसूस की। वे कॉफी पी रहे थे। जैसे ही उन्होंने मुझे देखा तो अभीक ने मुझसे पूछा 'क्या आप कॉफी लेंगे?' 
मैंने इनकार किया और कहा जब आपको जरूरत हो तब एक कप कॉफी के लिए 280 रुपए चुकाना बुद्धिमानी नहीं है। इस पर अभीक ने कहा, 'कम ऑन अंकल, कॉफी पर खर्च करके कितनी बचत हो सकती है? इससे क्या फर्क पड़ेगा, बात 280 रुपए की ही तो है। मेरी शादी के लिए आप जो कुछ भी कर रहे हैं उसके बदले में मुझे एक कप कॉफी तो पिलाने दीजिए, इससे मुझे थोड़ी खुशी मिल जाएगी।' 
मैं इस युवक को निराश नहीं करना चाहता था तो मैंने कहा, 'अभी रहने दो पर मैं 280 रुपए के इस ऑफर का बाद में इस्तेमाल करूंगा,' बिना यह जाने कि ऐसा वक्त जल्दी ही जाएगा। फिर मेहमान आने लगे और हमारा ध्यान मेहमानों की सुविधा-सहूलियत पर चला गया। रिसेप्शन स्थल पर एक मेहमान की तबियत अचानक खराब होने से उन्हें मेडिकल केयर की जरूरत पड़ गई। हम उन्हें पास में मौजूद डॉक्टर के पास ले गए। हम इंतजार करने लगे। जब हमारे मेहमान डॉक्टर के चैम्बर में जाने लगे तो हमने एक महिला को चैम्बर से बाहर आते देखा। उसे 10 वर्षीय बालक ने सहारा दे रखा था। 
मैं और अभीक कंपाउंडर रोगी के बीच की बातचीत सुन रहे थे। देखिए डॉक्टर अपनी फीस नहीं ले रहे हैं पर दवा के 300 रुपए आपको देेने होंगे। महिला ने कहा, 'मैं शाम तक 200 रुपए दे दूंगी, क्योंकि अभी मेरे पास सिर्फ 100 रुपए हैं।' चूंकि कंपाउंडर ने उसे बिना पैसा दिए दवाइयां देने से इनकार कर दिया, उसने कहा कि वह इंतजार करे बाकी पैसे के लिए कुछ इंतजाम करती हूं। मैं अभीक की अोर मुड़ा और कहा, 'अब मुझे एक कप कॉफी पीने की इच्छा हो रही है, तुम भुगतान करके महिला को दवाइयां क्यों नहीं दिला देते।' एक शब्द कहे बिना उसने मेरी बात मान ली। उस महिला को तोहफा खोलते, मेरा मतलब था दवाइयों के पैकेट खोलते और आश्चर्य मिश्रित खुशी के साथ प्रतिक्रिया देते देखकर इतना संतोष मिला कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उसका बीमार चेहरा चमक उठा। उसने सिर्फ अभीक के सिर पर से हाथ घुमाया लेकिन, बाहर जाते समय उसकी आंखों ने कई बार धन्यवाद कह दिया। उन आंखों ने जो कहा वह 280 रुपए की कॉफी से कही अधिक मूल्यवान था। उसने कहा, 'मुझे अब पहले से कहीं ज्यादा अच्छा लग रहा है।' विंस्टन चर्चिल ने बिल्कुल ठीक कहा था, 'हमें जो मिलता है उससे हम आजीविका चलाते हैं, हम जो देते हैं उससे ज़िंदगी बनाते हैं।' 
फंडा यह है कि यदि हम में से हर व्यक्ति रोज दयालुता का एक काम करें तो यह दुनिया जीने लायक बन सकती है।