एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)
कम से कम केरल के पल्लकड़ जिले में पहाड़ी की चोटी पर वैकल्पिक स्कूल 'सारंग' खोलने वाले दंपति गोपालकृष्ण और विजयलक्ष्मी तो यही मानते हैं। उनके पाठ्यक्रम में तो छोटे बच्चों के लिए भी ऑर्गनिक खेती और पर्यावरण संरक्षण जैसे विषय हैं। इन दोनों ने ऐसे स्कूल का सपना देखा था जो वास्तविकता के समीप हो- खुला, लोकतांत्रिक, लचीली सीमाओं वाला, कोई सर्टिफिकेट नहीं, रटकर सीखने की प्रवृत्ति और सारे बच्चों के लिए एक जैसा पाठ्यक्रम। उनका बेटा गौतम पहला छात्र बना। फिर आस-पड़ोस के बच्चे आए।
उन्होंने पहली बार 1994 में पहाड़ी के शीर्ष पर एक एकड़ जमीन खरीद और वहां हरियाली लौटाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने जमीन के बड़े हिस्से को जंगल उगाने के लिए रेखांकित कर लिया। शेष पर उन्होंने गिली मिट्टी बांस की सहायता से अपने मकान बनाए और सब्जियां, फल और जरूरत के मुताबिक अनाज उगाया, वह भी ऐसी विधियों से जो मिट्टी को उर्वर बनाए। चेक-डेम और पर्कोलेशन पिट से पानी सहेजा जाता। बच्चे देखकर, महसूस करके और खुद करके भौतिकी, जीवविज्ञान, भूगोल, गणित, रसायनशास्त्र और पर्यावरण विज्ञान की शिक्षा लेते। दो साल में परिवार पर कर्ज हो गया और 50 छात्रों को अपने सपनों का स्कूल छोड़ना पड़ा, क्योंकि वह बंद हो गया था। लेकिन, इन दोनों को अपने सपने पर भरोसा था और उन्होंने उसे गौतम और बाद में उसकी छोटी बहनों कन्नकी तथा उन्नीआर्चा के माध्यम से जीवित रखा। वे पहाड़ी की चोटी पर रहते रहे तथा 'सारंग' पद्धति के जीवन शिक्षण पर प्रयोग करते रहे।
गौतम ने 14 वर्ष की उम्र में शौकिया वायरलेस ऑपरेटर की परीक्षा पास कर ली और वह हैम रेडियो का शौकीन हो गया। बाद में उसनेे गोवा में ऑर्गनिक फार्मिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया में पूर्णकालिक जॉब कर लिया, जहां वह 'सारंग' में लिए अपने अनुभवों का इस्तेमाल कर सकता था। उसने वेब डेवलपमेंट के भी कुछ कोर्स कर लिए, जो कुछ पैसा कमाने के लिए उपयोगी रहे। बहनों ने नृत्य सीखने के लिए पहाड़ी छोड़ी। कर्ज चुकाने के बाद परिवार 2013 में फिर पहाड़ी पर गया। तब तक पहाड़ी हरे-भरे जंगल, भरपूर पानी, पक्षियों और प्राणियों से गुलजार हो गई थी। आज उसमें 12 एकड़ जमीन और जुड़ गई है। अब 36 वर्ष के हो चुके गौतम अपनी पत्नी अनुराधा, दो बच्चों और माता-पिता के साथ यह संस्था बच्चों के लिए वैकल्पिक शिक्षा केंद्र के बतौर चलाते हैं। नियमित शिविरों और कार्यशालाओं के जरिये वे पालकों को इस तरह प्रशिक्षित करते हैं कि वे अपने बच्चों की ओपन लर्निंग में सहायक बन सकें और बच्चों को अपनी जिज्ञासा से सीखने के लिए प्रेरित कर सकें।
फंडा यह है कि आपदा मुक्त विश्व के लिए भावी पीढ़ी को आधुनिक तो होना होगा पर प्रकृति की अनदेखी किए बिना।
साभार: भास्कर समाचार
अब यह कटु सत्य हमारे सामने है कि भारत दुनिया में छठा ऐसा देश है, जिस पर जलवायुगत आपदाओं का जोखिम सबसे ज्यादा है। बर्लिन स्थित एनजीओ जर्मन वाच ने गुरुवार को ग्लोबल क्लायमेट रिस्क इंडेक्स
जारी किया। संगठन ने 1996 से 2016 तक के 20 वर्षों में आई प्राकृतिक आपदाओं के आंकड़ों का विश्लेषण किया और पाया कि इस दौरान 5.24 लाख लोगों को जान गंवानी पड़ी अौर दुनिया को 3.1 खरब डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ। यह इस अवधि में मौसम की अति से आई आपदाओं का सीधा नतीजा है। यदि हमने नई पीढ़ी को इस तरह से प्रशिक्षित नहीं किया कि वे आधुनिक रहते हुए भी 'प्रकृति की गोद' में ही रहें, तो इस बात के पूरे अवसर हैं कि आज के खतरे के संकेत जल्दी ही आपदा में बदल जाएं। कम से कम केरल के पल्लकड़ जिले में पहाड़ी की चोटी पर वैकल्पिक स्कूल 'सारंग' खोलने वाले दंपति गोपालकृष्ण और विजयलक्ष्मी तो यही मानते हैं। उनके पाठ्यक्रम में तो छोटे बच्चों के लिए भी ऑर्गनिक खेती और पर्यावरण संरक्षण जैसे विषय हैं। इन दोनों ने ऐसे स्कूल का सपना देखा था जो वास्तविकता के समीप हो- खुला, लोकतांत्रिक, लचीली सीमाओं वाला, कोई सर्टिफिकेट नहीं, रटकर सीखने की प्रवृत्ति और सारे बच्चों के लिए एक जैसा पाठ्यक्रम। उनका बेटा गौतम पहला छात्र बना। फिर आस-पड़ोस के बच्चे आए।
उन्होंने पहली बार 1994 में पहाड़ी के शीर्ष पर एक एकड़ जमीन खरीद और वहां हरियाली लौटाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने जमीन के बड़े हिस्से को जंगल उगाने के लिए रेखांकित कर लिया। शेष पर उन्होंने गिली मिट्टी बांस की सहायता से अपने मकान बनाए और सब्जियां, फल और जरूरत के मुताबिक अनाज उगाया, वह भी ऐसी विधियों से जो मिट्टी को उर्वर बनाए। चेक-डेम और पर्कोलेशन पिट से पानी सहेजा जाता। बच्चे देखकर, महसूस करके और खुद करके भौतिकी, जीवविज्ञान, भूगोल, गणित, रसायनशास्त्र और पर्यावरण विज्ञान की शिक्षा लेते। दो साल में परिवार पर कर्ज हो गया और 50 छात्रों को अपने सपनों का स्कूल छोड़ना पड़ा, क्योंकि वह बंद हो गया था। लेकिन, इन दोनों को अपने सपने पर भरोसा था और उन्होंने उसे गौतम और बाद में उसकी छोटी बहनों कन्नकी तथा उन्नीआर्चा के माध्यम से जीवित रखा। वे पहाड़ी की चोटी पर रहते रहे तथा 'सारंग' पद्धति के जीवन शिक्षण पर प्रयोग करते रहे।
गौतम ने 14 वर्ष की उम्र में शौकिया वायरलेस ऑपरेटर की परीक्षा पास कर ली और वह हैम रेडियो का शौकीन हो गया। बाद में उसनेे गोवा में ऑर्गनिक फार्मिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया में पूर्णकालिक जॉब कर लिया, जहां वह 'सारंग' में लिए अपने अनुभवों का इस्तेमाल कर सकता था। उसने वेब डेवलपमेंट के भी कुछ कोर्स कर लिए, जो कुछ पैसा कमाने के लिए उपयोगी रहे। बहनों ने नृत्य सीखने के लिए पहाड़ी छोड़ी। कर्ज चुकाने के बाद परिवार 2013 में फिर पहाड़ी पर गया। तब तक पहाड़ी हरे-भरे जंगल, भरपूर पानी, पक्षियों और प्राणियों से गुलजार हो गई थी। आज उसमें 12 एकड़ जमीन और जुड़ गई है। अब 36 वर्ष के हो चुके गौतम अपनी पत्नी अनुराधा, दो बच्चों और माता-पिता के साथ यह संस्था बच्चों के लिए वैकल्पिक शिक्षा केंद्र के बतौर चलाते हैं। नियमित शिविरों और कार्यशालाओं के जरिये वे पालकों को इस तरह प्रशिक्षित करते हैं कि वे अपने बच्चों की ओपन लर्निंग में सहायक बन सकें और बच्चों को अपनी जिज्ञासा से सीखने के लिए प्रेरित कर सकें।
फंडा यह है कि आपदा मुक्त विश्व के लिए भावी पीढ़ी को आधुनिक तो होना होगा पर प्रकृति की अनदेखी किए बिना।