Wednesday, November 8, 2017

बात मैनेजमेंट की: क्यों ग्रामीणों को शहर के लोगों से सबक लेना चाहिए?

साभार: भास्कर समाचार
एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)
भिवारी महाराष्ट्र के पुणे शहर से 20 किलोमीटर दूर 2509 हेक्टेयर क्षेत्र की एक छोटी ग्राम पंचायत है। 2011 की जनगणना के अनुसार वहां के 682 घरों में सिर्फ 3,314 लोग रहते हैं, जिनका मुख्य पेशा खेती है। 23
अक्टूबर को गांव के शांताराम काटके जब अपने खेत पर काम कर रहे थे तो ग्राम पंचायत सदस्यों के साथ राज्य सरकार के कुछ कर्मचारी आए और उनके पास आकर उनके खेत में बने तालाब के बारे में पूछने लगे। उसे देखने के बाद उन्होंने फोटो खींचे और चले गए। काटके को पता ही नहीं चला कि माजरा क्या है। उन लोगों ने उनसे बात तक नहीं की। 
बाद में 31 अक्टूबर को कोई व्यक्ति एक अखबार लेकर दौड़ता हुआ उनके पास आया। इसमें उनका उनके तालाब का फोटो छपा था। यह राज्य सरकार का विज्ञापन था, जिसमें काटके को 'जलयुक्त शिवार' योजना का लाभान्वित बताया गया था। कहा गया था कि काटके को अपने खेत पर तालाब खोदने के लिए 2.30 लाख रुपए दिए गए थे, जिसने उनकी ज़िंदगी और खेती करने के उनके तरीके में बदलाव ला दिया। विज्ञापन में दावा किया गया था कि अब तक वे सिर्फ ज्वार और मक्का बोते थे लेकिन, अब वे बीन्स, मटर और अन्य सब्जियां भी उगाते हैं, जिससे उनकी आमदनी बढ़ गई है। इस दावे में एक रोचक लाइन और जोड़ी गई थी कि तालाब के कारण गांव के भूमिगत जल का स्तर ऊंचा उठाने में मदद मिली है, जिससे सभी को फायदा हुआ है। महाराष्ट्र सरकार ने सत्ता में तीन साल पूरे होने के अवसर पर विज्ञापनों की शृंखला प्रकाशित की है, जिसमें से एक विज्ञापन काटके और खेत में बने उनके तालाब पर था। 
इस दावे ने मीडिया का ध्यान खींचा, क्योंकि राजनीतिक दलों ने दावा किया कि काटके मौजूदा सरकार के सत्ता में आने के पहले से ही ऐसा कर रहे हैं। मौजूदा कृषि मंत्री ने शनिवार को गलती स्वीकार की और विवाद खत्म हो गया। इस राजनीतिक खींचतान को इस कॉलम में लाने का मेरा उद्‌देश्य यह बताना नहीं है कि फायदा किसे हुआ और किसान के विकास के लिए कौन-सी सरकार जिम्मेदार है। मैं अापका ध्यान इस तथ्य की ओर खींचना चाहता हूं खासतौर पर विज्ञापन की अंतिम पंक्ति पर, जिसमें कहा गया है, 'खेत में बने तालाब ने गांव का भू-जलस्तर बढ़ा दिया और इससे सबको फायदा हुआ।' 
इस सरल से मानव निर्मित मिट्‌टी के बांध बनाने में प्राचीन काल में महारत हासिल कर ली गई थी लेकिन, इससे भी महत्वपूर्ण बात है कि आधुनिक समय में इन्हें नया जीवन दिया गया और कुछ किसानों ने देश में वर्षा के जल का दोहन करने के लिए इनका निर्माण किया। इस तरह ये जल संरक्षण का शक्तिशाली जरिया बन गया है। अब यह कोई छिपी बात नहीं है हम वर्षा पर निर्भर देश हैं और सूखा अतिवृष्टि पिछले कुछ वर्षों से हमारे साथ लुका-छिपी का खेल खेल रहे हैं। 
खेतों पर तालाबों का अस्तित्व 11वीं सदी से है और दक्षिण में उनमें से कुछ तो आज भी बनाए रखे गए हैं, जहां मैंने अपना बचपन बिताया है। एक तालाब भरने पर उसका पानी दूसरे में चला जाता और इस तरह तालाबों की शृंखला से होता हुआ पानी नदी को आपूर्ति करता है। जलसंरक्षण की पुरानी तरकीब, पानी का किफायती इस्तेमाल करने वाली फसलों की नई पद्धति और सिंचाई प्रणालियां, ये सारे मिलकर सूखे से अप्रभावित समाज बनाते हैं। जब तालाब में कम पानी होता है तो रागी उगाई जाती है और जब ज्यादा बारिश से तालाब लबालब भर जाएं तो धान की फसल ली जाती है। खेतों के तालाब से जलदोहन की प्रणाली आकाश को धरती से जोड़ने का प्रोजेक्ट है। मैं इस बात का कट्‌टर समर्थक हूं कि सारे किसानों को शहर की कोऑपरेटिव सोसाइटियों में रहने वाले उनके उपभोक्ताओं की तरह रहना चाहिए, जो एक टंकी में पानी इकट्‌ठा करके सारे फ्लैट्स को पानी वितरित करते हैं। 
फंडा यह है कि ग्रामीण इलाकों में खाद्यान्न के उत्पादकों को शहर में उनके उपभोक्ताओं से मैनेजमेंट के कुछ सबक लेने चाहिए।