एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
यह ऐसा अकेला मामला नहीं है। उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के कांझावाला के एक कमरे के मकान में रह रहे 42 वर्षीय राज कुमार को ही लीजिए। इस साल 19 फरवरी को एक दिन पहले बाजार गई पत्नी के लौटने पर राज उसके गायब होने की रिपोर्ट दर्ज कराने पुलिस थाने जा ही रहे थे कि उन्होंने अपने मकान के पार्क के पास बड़ी भीड़ देखी। वे देखने गए कि हुआ क्या है। वहां उन्होंने पत्नी को मृत पड़े देखा। उन्हें फुट-फुटकर रोते देखकर वहां मौजूद पुलिककर्मी ने जोर से थप्पड़ लगाकर पूछा कि दूसरा शव कहां है। उन्हें तो समझ में ही नहीं रहा था कि पुलिस वाले क्या बात कर रहे हैं। बाद में उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी के प्रेमी की भी हत्या हो गई है। तत्काल उन्हें एक कमरे पुलिस ने उन्हें पीटना शुरू किया और यह कबूलने पर मजबूर किया कि उन्होंने ही दोनों हत्याएं की हैं। दिन गुजरने के साथ उनकी यंत्रणाएं बढ़ती गईं। उन्होंने गुहार लगाई गई कि उन्हें भी मार दिया जाए। लेकिन, 5 मार्च को उन्हें हत्या के आरोप में तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। उन्हें पता नहीं था कि जेल के बाहर 16 19 साल के उनके दो बेटों को स्कूल छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा, क्योंकि साथी उन्हें ताने मारते रहते थे। पैसे जुटाने के लिए बड़े बेटे ने डीजे बनना चाहा पर हत्यारे का बेटा होने के दाग के कारण उसे वह काम छोड़ना पड़ा। छोटा बेटा तो कभी घर से बाहर ही नहीं आया। जिनसे इन बच्चों को सहारा मिल सकता था उन राज कुमार के ससुराल वालों ने बिल्कुल नाता तोड़ लिया।
वे अपने भाग्य को कोसते रहते थे लेकिन, 29 अप्रैल को एक कैदी दौड़ता हुआ आया और उसने उन्हें बताया कि राजेश बनानिया गैंग के तीन सदस्यों ने उनकी पत्नी के साथ सामूहिक दुष्कर्म के बाद उसे और उसके प्रेमी की हत्या करना कबूल किया है। उन्हें तो समझ में नहीं अा रहा था कि इस खबर पर खुश होना चाहिए या दुखी। वे आखिरकार इस साल 22 मई को जेल से रिहा हुए। तब से वे बार-बार दिल्ली के उत्तर नगर निगम के दफ्तर सफाईकर्मी की अपनी नौकरी पर फिर बहाल होने के लिए जा रहे हैं, जिससे उन्हें गिरफ्तारी के तुरंत बाद बर्खास्त कर दिया गया था। लेकिन, अधिकारी बार-बार उन्हें खाली हाथ लौटाते रहे हैं। उसके बाद से यह परिवार दरिद्रता में जी रहा है, ऐसी ज़िंदगी जिसके बारे में कुछ भी बताने की जरूरत नहीं है।
यह सिर्फ एक अशोक कुमार अथवा राज कुमार का मामला नहीं है, जांच में घटिया प्रदर्शन के ऐसे कई मामले हैं, जिनमें आरुषि मामला भी शामिल है, जिसे लेकर हाई कोर्ट तक ने पुलिस की आलोचना की है। जब तक हम सब ऐसे प्रकरणों की नैतिक जिम्मेदारी नहीं लेंगे, समाज की छवि को चोट पहुंचती रहेगी।
फंडा यह है कि ऐसे समाज की जिम्मेदारी हमारी है, जिसे दुनिया में सराहना मिले। यह तभी संभव है जब हम अपना काम पूरी कर्मठता से करें।
साभार: भास्कर समाचार
पिछले दो माह से 42 वर्षीय बस कंडक्टर अशोक कुमार गुड़गांव स्थित रेयान इंटरनेशनल स्कूल में दूसरी कक्षा के छात्र प्रद्युम्न की हत्या के आरोप में जेल में सड़ रहा है। यह हत्या इस साल 8 सितंबर को हुई थी। वह बार-
बार कहता रहा, 'मैंने यह नहीं किया, पुलिस ने जबर्दस्ती मेरा इकबालिया बयान ले लिया है।' जिस जल्दबाजी में हरियाणा पुलिस ने गिरफ्तारी की और हत्या का मामला सुलझाने का दावा किया उससे प्रद्युम्न के पिता वरुण भी पुलिस जांच पर सवाल उठाने पर मजबूर हो गए। उन्होंने सीबीआई जांच की मांग की, जिसके बाद उसी स्कूल के 11वीं के छात्र की गिरफ्तार हुई है और कंडक्टर आरोप मुक्त हुआ है। यह ऐसा अकेला मामला नहीं है। उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के कांझावाला के एक कमरे के मकान में रह रहे 42 वर्षीय राज कुमार को ही लीजिए। इस साल 19 फरवरी को एक दिन पहले बाजार गई पत्नी के लौटने पर राज उसके गायब होने की रिपोर्ट दर्ज कराने पुलिस थाने जा ही रहे थे कि उन्होंने अपने मकान के पार्क के पास बड़ी भीड़ देखी। वे देखने गए कि हुआ क्या है। वहां उन्होंने पत्नी को मृत पड़े देखा। उन्हें फुट-फुटकर रोते देखकर वहां मौजूद पुलिककर्मी ने जोर से थप्पड़ लगाकर पूछा कि दूसरा शव कहां है। उन्हें तो समझ में ही नहीं रहा था कि पुलिस वाले क्या बात कर रहे हैं। बाद में उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी के प्रेमी की भी हत्या हो गई है। तत्काल उन्हें एक कमरे पुलिस ने उन्हें पीटना शुरू किया और यह कबूलने पर मजबूर किया कि उन्होंने ही दोनों हत्याएं की हैं। दिन गुजरने के साथ उनकी यंत्रणाएं बढ़ती गईं। उन्होंने गुहार लगाई गई कि उन्हें भी मार दिया जाए। लेकिन, 5 मार्च को उन्हें हत्या के आरोप में तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। उन्हें पता नहीं था कि जेल के बाहर 16 19 साल के उनके दो बेटों को स्कूल छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा, क्योंकि साथी उन्हें ताने मारते रहते थे। पैसे जुटाने के लिए बड़े बेटे ने डीजे बनना चाहा पर हत्यारे का बेटा होने के दाग के कारण उसे वह काम छोड़ना पड़ा। छोटा बेटा तो कभी घर से बाहर ही नहीं आया। जिनसे इन बच्चों को सहारा मिल सकता था उन राज कुमार के ससुराल वालों ने बिल्कुल नाता तोड़ लिया।
वे अपने भाग्य को कोसते रहते थे लेकिन, 29 अप्रैल को एक कैदी दौड़ता हुआ आया और उसने उन्हें बताया कि राजेश बनानिया गैंग के तीन सदस्यों ने उनकी पत्नी के साथ सामूहिक दुष्कर्म के बाद उसे और उसके प्रेमी की हत्या करना कबूल किया है। उन्हें तो समझ में नहीं अा रहा था कि इस खबर पर खुश होना चाहिए या दुखी। वे आखिरकार इस साल 22 मई को जेल से रिहा हुए। तब से वे बार-बार दिल्ली के उत्तर नगर निगम के दफ्तर सफाईकर्मी की अपनी नौकरी पर फिर बहाल होने के लिए जा रहे हैं, जिससे उन्हें गिरफ्तारी के तुरंत बाद बर्खास्त कर दिया गया था। लेकिन, अधिकारी बार-बार उन्हें खाली हाथ लौटाते रहे हैं। उसके बाद से यह परिवार दरिद्रता में जी रहा है, ऐसी ज़िंदगी जिसके बारे में कुछ भी बताने की जरूरत नहीं है।
यह सिर्फ एक अशोक कुमार अथवा राज कुमार का मामला नहीं है, जांच में घटिया प्रदर्शन के ऐसे कई मामले हैं, जिनमें आरुषि मामला भी शामिल है, जिसे लेकर हाई कोर्ट तक ने पुलिस की आलोचना की है। जब तक हम सब ऐसे प्रकरणों की नैतिक जिम्मेदारी नहीं लेंगे, समाज की छवि को चोट पहुंचती रहेगी।
फंडा यह है कि ऐसे समाज की जिम्मेदारी हमारी है, जिसे दुनिया में सराहना मिले। यह तभी संभव है जब हम अपना काम पूरी कर्मठता से करें।