Thursday, October 5, 2017

समस्याओं का सैलाब आए तो भी सपने जीवित रखें

एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)
साभार: भास्कर समाचार
यह मणिपुर के थौबल जिले के अज्ञात गांव हाओखा ममांग की कहानी है। 2010 में जब जैकसन सिंह पांचवीं कक्षा में थे तो उन पर फुटबॉल का वैसा ही जुनून सवार हो गया जैसा आधुनिक पीढ़ी पर ब्ल्यू व्हेल गेम का है।
उनके बड़े भाई जोनिचंद सिंह और उनके चचेरे भाई अमरजीत सिंह को भी इसमें रुचि थी। चूंकि परिवार के तीन युवाओं की रुचि एक ही खेल में थी, जेकसन के पिताजी कोथौजाम देबेन सिंह उनके प्रशिक्षक बन गए। पांच साल बाद 2015 का साल भी जैकसन के लिए कोई महान दौर नहीं था। अमरजीत को एआईएफएफ अकादमी में प्रशिक्षण के लिए चुन लिया गया था। उनका भाई कोलकाता प्रीमियर लीग के पीयरलेस क्लब में चला गया, जबकि जैकसन को 2015 में चंडीगढ़ में रहते हुए राष्ट्रीय चयनकर्ताओं द्वारा ठुकराए जाने की हताशा छिपाने के लिए कोई असर होने का दिखावा करना पड़ रहा था। वे अपनी बारी का धीरज के साथ इंतजार करते रहे। उसी समय उनके पिताजी को लकवे का दौरा पड़ा और उन्हें मणिपुर पुलिस की नौकरी छोड़ने पड़ी। क्लब फुटबॉल मैचों से होने वाली भाई की आय उनकी आर्थिक स्थिति में कोई फर्क नहीं ला पा रही थी। परिवार मां और नानी के सब्जी बेचने के धंधे से होने वाली आय पर निर्भर हो गया। वे घर से 25 किलोमीटर दूर इन्फाल के ख्वैराम्बंद बाजार में सब्जियां बेचती थीं। जैकसन को देखकर इस संघर्ष का कुछ पता नहीं चलता, क्योंकि वे छह फीट दो इंच लंबे हैंडसम युवा जो हैं। 
व्यक्तिगत कठिनाइयों के सैलाब के बीच भी उन्होंने अपना सपना जीवित रखा और चंडीगढ़ फुटबॉल अकादमी की चंडीगढ़ स्थित मिनर्वा अकादमी में चले गए। यहां उन्होंने राष्ट्रीय अंडर-15 और अंडर-16 में मिनर्वा का नेतृत्व कर दो स्पर्धाएं जीतीं। जीत की इस शृंखला के कारण मिनर्वा को इस साल मार्च में गोवा में इंडिया अंडर-17 टीम के खिलाफ खेलने को आमंत्रित किया, जहां वे 1-0 से विजयी रहे। इंडिया अंडर-17 के हैड कोच लुइस नोर्टोन डे मैटोस ने 21 सदस्यीय भारतीय टीम के लिए चार खिलाड़ी चुनने में देर नहीं लगाई, जिसमें जैकसन डिफेंसिव मिडफील्डर बन गए। कॅरिअर की शुरुआत में व्यक्तिगत जीवन में लगे झटकों के कारण वे मौजूदा भारतीय टीम के सबसे ऊंचे आउटफील्डर के रूप में पहचाने जाने के साथ अपनी उम्र से ज्यादा परिपक्वता दिखाने के लिए भी जाने जाते हैं। मणिपुर को गर्व होगा कि भारतीय दल में आठ सदस्य तो इसी राज्य के हैं और इन सबकी पृष्ठभूमि लगभग समान है। 
संजीव स्टालिन की मां बेंगलुरू के फुटपाथ पर कपड़े बेचती हैं और इंडिया अंडर-17 के फुटबॉलर को अब भी यह समझ में नहीं आया है कि मां उनके के लिए जूते कैसे खरीद पाईं। जितेंद्र सिंह के पिता बंगाल में वॉचमैन हैं और डिफेंडर अनवर अली तो पशु चराने ले जाते थे। स्टाइकर अनिकेत जाधव के पिता महाराष्ट्र के कोल्हापुर में ऑटोरिक्शा चलाते हैं लेकिन, अपने बेटे को 6 अक्टूबर को अंडर-17 फुटबॉल वर्ल्ड कप में खेलते देखने के लिए दिल्ली जाना परिवार के लिए चुनौती साबित हो रहा है। इंडिया अंडर-17 के ज्यादातर खिलाड़ियों के सामने अजीब-सी स्थिति है। वे इतिहास बनाने की दहलीज पर है, क्योंकि यह फुटबॉल के किसी वर्ल्ड कप में खेलने वाला एकमात्र भारतीय समूह होगा लेकिन, उन्हें यकीन नहीं है कि उनके परिवार उन्हें दिल्ली में इतिहास बनाते देख पाएंगे। यदि ये लड़के इस वर्ल्ड कप में अच्छा प्रदर्शन करते हैं, तो कई क्लब 1.20 लाख रुपए प्रतिमाह तक की पेशकश के साथ अपने दरवाजे इन लड़कों के लिए खोल देंगे। 
फंडा यह है कि जीत की अंतिम मुस्कान के लिए अपने सपने तब जीवित रखिए, जब ज़िंदगी में कठिनाइयों का सैलाब जाए।