साभार: जागरण समाचार
हाल में नेशनल ग्रीन टिब्युनल ने इस बात पर नाराजगी जताई कि रेन वाटर हार्वेस्टिंग के प्रति गंभीर लापरवाही बरती जा रही है। इस नाराजगी से ऐसा लगता है कि रेन वाटर हार्वेस्टिंग कोई नई अवधारणा है, जिसे अफसर
अपना नहीं पा रहे या इसकी सीख आमजन तक नहीं पहुंचा पा रहे।
सच यह है कि भारत में वर्षा जल संचयन की प्रणाली आज की नहीं हड़प्पाकालीन नगर व्यवस्था से ही जुड़ी है। जबकि मुगलकालीन वर्षा जल संचयन प्रणाली के जाग्रत उदाहरण फतेहपुर सीकरी में स्थित शेख सलीम चिश्ती की दरगाह व अकबर के किले में आज भी मौजूद हैं और बाकायदा काम कर रहे हैं।
बुलंद दरवाजा के पीछे स्थित हजरत शेख सलीम चिश्ती की दरगाह परिसर में स्थित संगमरमरी मजार की छत से बारिश का पानी मजार के पोले खंभों से होते हुए परिसर में बनी ढकी हुई नालियों से होकर एक भूमिगत कुएं में जाता है। पेयजल किल्लत होने पर लोग संग्रहीत वर्षा जल का पीने के लिए उपयोग करते थे, कुछ लोग आज भी इसे पवित्र जल मान जरूरत पड़ने पर पीने के काम में लाते हैं। इसी तरह दरगाह परिसर का वर्षा जल बुलंद दरवाजे के दक्षिणी कोने पर स्थित झालरा शाही तालाब में एकत्र होता है। जबकि आगरा किले में स्थित बेगम महलों, दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, खजाना खास आदि का पानी भी इसी तरह से एक नाली से दूसरी नाली में होते हुए तालाब में एकत्र होता है। वर्षा जल संचयन की यह प्रणाली वर्ष 1571 में शुरू हुए इस निर्माण के समय ही बनी थी और आज भी सुचारू है।
एप्रूव्ड टूरिस्ट गाइड एसोसिएशन के अध्यक्ष शमसुद्दीन बताते हैं कि फतेहपुर सीकरी पहाड़ी पर स्थित है। क्षेत्र की परिस्थितियों और पानी की उपलब्धता को देखते हुए यहां अंडरग्राउंड वाटर टैंक बनवाए गए थे। बुलंद दरवाजे और दरगाह परिसर से बारिश का पानी नालियों में होता हुआ लंगरखाना में बने अंडरग्राउंड वाटर टैंक तक पहुंचता था।
वर्ष 2014 के बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा कारवां सराय के पास प्राचीन बावड़ी का संरक्षण कराया गया। इस बावड़ी में अकबर और जहांगीर के समय काम किया गया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा आसपास के क्षेत्र में सफाई कराने पर प्राचीन जल प्रणाली के अवशेष मिले थे।
सहायक अधीक्षण पुरातत्वविद आरके सिंह बताते हैं कि भारत में हड़प्पा काल से ही बारिश के पानी को संग्रह करने की परंपरा रही है। धौलावीरा में बारिश के पानी को एकत्र किया जाता था। उस समय आरओ प्लांट और फिल्टर तो थे नहीं, बारिश के पानी को ही सबसे शुद्ध माना जाता था। कुषाण, गुप्त और मुगल काल में भी यह परंपरा रही।