Sunday, January 21, 2018

Management: यांत्रिक जीवनशैली से बाहर आइए

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
साभार: भास्कर समाचार
घटना 1: कल मेरे एक दोस्त ने भोपाल से फोन पर मुझे बताया कि उनके शहर के कुछ बच्चों ने चार गार्बेज डम्प क्षेत्रों को प्ले जोन में बदल दिया है, जिसमें झूले, फिसलपट्‌टी आदि खेलने की कई सुविधाएं हैं और वे सारी
बेकार की चीजों का इस्तेमाल करके बनाई गई हैं, जिसमें स्थानीय स्वशासन संस्था और एनजीओ 'हमारा बचपन' ने उनकी मदद की। अब अनुमानित 200 बच्चे इन सुविधाओं का इस्तेमाल करते हैं और जगह बच्चों की गतिविधियों से गुलजार है। 
'कबाड़ से जुगाड़' का नाम पाने वाली इस जगह का 'राइट टू प्ले' ऑडिट जल्द ही सामाजिक व विकास संबंधी मुद्दों को छुएगा, आमतौर पर जिसकी अनुपस्थिति में बच्चों का उचित विकास प्रभावित होता है। मैंने जब पूछा कि वे बच्चे हाल ही में फिर हासिल की गई इस जगह का कैसा आनंद ले रहे हैं तो उसका एक पंक्ति में जवाब था, 'मैंने लंबे समय बाद बच्चों को अपने खेलों व शरारतों में इतना डूबकर लुत्फ उठाते देखा है। उनके खुशी से दमकते चेहरे देखने के बाद इसकी पुष्टि के लिए किसी और सबूत की जरूरत नहीं है।' 

घटना 2: तत्काल मुझे 17 अगस्त 2017 को चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर हुई घटना याद आई, जब स्टेशन के विशाल प्रवेश द्वारा पर ट्रेन यात्रियों का स्वागत घुंघरुओं की झनकार से हुआ। संभवत: देश में पहली बार रेलवे स्टेशन जैसी जगह पर शास्त्रीय नृत्य भरतनाट्यम प्रस्तुत किया गया। स्टेशन पर काम करने वाले स्टाफ से लेकर यात्रियों तक सारे दर्शक इस प्रस्तुति में डूब गए, जिसमें 'चतुर लक्षण अकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स' ने छह नृत्य पेश किए। बहुत अल्पसूचना पर उन्होंने यह कार्यक्रम तैयार किया था और दो हफ्ते से भी कम समय में कई सामाजिक मुद्दों से संबंधित टुकड़ों को कोरियोग्राफी में पिरोया, इसके अलावा समय की कसौटी पर खरी उतर चुकीं प्रस्तुतियां तो थीं ही। शास्त्रीय कला की प्रस्तुति देने वाले हमेशा दबाव में होते हैं और वे दर्शकों के फीडबैक को लेकर चिंतित रहते हैं। लेकिन, जब उन्होंने रेलवे स्टेशन पर प्रस्तुति दी तो यह विशुद्ध रूप से खुशी का अहसास था। सेटिंग इतनी प्रेरणादायक थी कि उन्हें चिंता नहीं थी कि उनके नृत्य पर लोगों की क्या प्रतिक्रिया होगी। 
इन दो घटनाओं से विचार आया कि कैसे कई सार्वजनिक स्थलों का उपयोग हाशिये पर पहुंच चुकीं खेल व कला की गतिविधियां छोटी जगहों पर ले जाकर और ऊंची कला व खेल गतिविधियों को हाशिये पर पड़ी जगहों पर ले जाने में किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में ऐसी गतिविधियों के लिए अनुपयोगी मानी गई जगहों को शायद नया जीवन मिल जाए, जैसे भोपाल के गार्बेज एरिया अथवा चेन्नई रेलवे स्टेशन को मिला। किसी भी चीज को अज्ञात कोनों और नुक्कड़ों पर ले जाने से वहां के समुदायों में मेलजोल गहरा होता है और दीर्घावधि में अंतत: इसका समाज के मानसिक विकास पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मेरे कहने का मतलब है कि इससे कुछ कलाएं व खेल 'डी-क्लास' हो जाएंगे, जिन्हें अभी समाज के ऊंचे तबके अथवा गरीब तबकों से जोड़ा जाता है। यह सिर्फ सार्वजनिक स्थानों पर कला को लाने या खेल गतिविधियां करके उनका उपयोग बदलने या उन्हें शिफ्ट करने की ही बात नहीं है बल्कि वहां कला, खेल और सारे वर्गों के प्रति सम्मान की भावना पैदा करने की बात है। 
हम बहुत ही खतरनाक युग में जा रहे हैं। एक तरफ तो हमने खुद को यकीन दिला लिया है कि बस या ट्रेन लोगों के बैठने और एक से दूसरी जगह जाने का पब्लिक स्पेस है। इससे अधिक कुछ नहीं। और यह भी कि बस स्टैंड और ट्रेन स्टेशन सरकारी जगहें हैं और वहां हमें कुछ करने का अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ हम पूरी तरह हमारे सेल फोन पर केंद्रित हैं और हमारे आसपास के माहौल से पूरी तरह कट गए हैं। कृपया यह सुनिश्चित करने के लिए ऐसा कुछ करें कि ऐसे स्पेस हमारे हाथों में बने रहे। 
फंडा यह है कि सेलफोन से संचालित अपनी स्वचालित यांत्रिक किस्म की जीवनशैली से बाहर आइए और समाज के हर तबके को हर चीज का 360 डिग्री व्यू देने के लिए कुछ अलग कीजिए।