Tuesday, January 9, 2018

समलैंगिकता अपराध या नहीं फैसला करेगी संविधान पीठ, सामाजिक नैतिकता और कानून बदलते रहते हैं, इन पर बहस जरूरी - चीफ जस्टिस

साभार: जागरण एवं भास्कर समाचार 
समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाली भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 377 की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट फिर परखेगा। कोर्ट इस कानून को सही ठहराने वाले अपने सुरेश कुमार कौशल के फैसले पर चार
साल बाद पुनर्विचार करेगा। सुप्रीम कोर्ट ने दो वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को व्यक्ति के यौन रुझान की व्यक्तिगत पसंद और निजता के अधिकार से तुलना करते हुए मामले पर दोबारा विचार का मन बनाया है। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने मामले को संवैधानिक मुद्दा मानते हुए संविधान पीठ को भेज दिया है।
कोर्ट के फैसले से समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने की लड़ाई लड़ रहे गैर सरकारी संगठनों और अन्य लोगों में एक उम्मीद की किरण जगी है। चार साल पहले 11 दिसंबर 2012 को दो न्यायाधीशों की पीठ ने धारा 377 को संवैधानिक ठहराते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के उस फैसले को पलट दिया था जिसमें दो वयस्कों के बीच सहमति से एकांत में बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था। हालांकि, उस फैसले के खिलाफ अभी भी सुप्रीम कोर्ट में नाज फाउंडेशन की क्यूरेटिव याचिका लंबित है। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक नई याचिका पर विचार करते हुए ‘सुरेश कुमार कौशल’ के फैसले को पुनर्विचार के लिए संविधान पीठ को भेजा है। यह नई याचिका पांच ऐसे लोगों ने दाखिल की है जो स्वयं को इस कानून से सीधे तौर पर प्रभावित बता रहे हैं। नई याचिका में भी धारा 377 को मौलिक अधिकार के खिलाफ बताते हुए रद करने की मांग की गई है।
केंद्र को दी जाए याचिका की प्रति: प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र, न्यायमूर्ति एएम खानविल्कर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने याचिका की प्रति केंद्र सरकार को देने का आदेश दिया है ताकि वह इस मामले में पक्ष रख सके। इससे पहले याचिकाकर्ता के वकील अरविंद दत्तार ने मौलिक अधिकार की दुहाई देते हुए कानून को चुनौती दी।
धारा 377 के दूसरे हिस्से पर विचार नहीं: हालांकि, कोर्ट पशुओं से यौन संबंध बनाने को अपराध मानने वाले धारा 377 के हिस्से पर विचार नहीं करेगा क्योंकि याचिकाकर्ता के वकील ने शुरू में ही साफ कर दिया है कि वह कानून के इस हिस्से को चुनौती नहीं दे रहे हैं। वह सिर्फ दो वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों के बारे में अपनी दलीलें रख रहे हैं।
समय के साथ बदलती है सामाजिक नैतिकता: कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि धारा 377 की परिभाषा में प्रयुक्त शब्दों में प्रकृति के विरुद्ध यौनाचार की बात कही गई है। लेकिन प्रकृति की अनुकूलता के बारे में हमेशा एक सी अवधारणा नहीं होती। सामाजिक नैतिकता भी समय के साथ बदलती रहती है। कानून जीवन के साथ सामंजस्य रखता है और इसीलिए उसमें बदलाव होते रहते हैं। हो सकता है कि जनता जिसे नैतिकता मानती हो, संविधान में उसे न सोचा गया हो। व्यक्तिगत आजादी और व्यक्तिगत यौन रुझान को संविधान में दी गई नैतिकता के तर्कसंगत नियंत्रण के बगैर नही रोका जा सकता। जो चीज एक व्यक्ति के लिए प्राकृतिक है, हो सकता है कि दूसरे के लिए वह नेचुरल न हो।
ये अंग्रेजों का कानून, ब्रिटेन में खत्म हो चुकी है यह व्यवस्था: कोई भी पुरुष या महिला अगर विपरीत लिंग वाले से अप्राकृतिक संबंध बनाए या समान लिंग वाले से विवाह करे तो यह आईपीसी की धारा-377 के तहत अपराध है। इसके लिए 10 साल तक की सजा हो सकती है। देश के तमाम समलैंगिक, ट्रांसजेंडर इत्यादि इसके दायरे में आते हैं। इस कानून की प्रस्तावना 1860 में लार्ड मैकाले की सिफारिशों पर तैयार हुई थी, जो आज धारा 377 के रूप में है। हालांकि, इंग्लैंड में यह कानून खत्म हो चुका है। 
याचिकाकर्ताओं की दलील- अधिकारों का हनन है धारा-377: याचिकाकर्ताओं की तरफ से सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल और अरविंद दातार ने दलील दी कि संविधान के भाग-3 में नागरिकों को कई मूलभूत अधिकार मिले हैं। लैंगिक समानता, यौन स्वायत्तता, यौन साथी चुनने की स्वतंत्रता, जीवन, गोपनीयता, गरिमा और समानता के अधिकार शामिल हैं। लेकिन आईपीसी की धारा 377 इन अधिकारों का हनन करती है। 2013 के फैसले के खिलाफ तीन साल से एक क्यूरेटिव याचिका भी लंबित है।