साभार: जागरण समाचार
भारत ही नहीं पूरा विश्व जिस प्रकार से आतंक के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है, वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। दुनिया भर में किसी को कोई शक नहीं है कि पाकिस्तान आज आतंकियों को पनाह देने वाला देश बना हुआ है।
अमेरिका ने भी देखा कि ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान ने पनाह दे रखी थी। आज मसूद अजहर लगातार आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दे रहा है। पाकिस्तान की सरकार तो जैसे आतंवादियों की बंधक बनी हुई है। लेकिन चीन जब पाकिस्तान के अंध समर्थन में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर जैसे कुख्यात आतंकवादी को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने के प्रस्ताव पर लगातार चौथी बार अड़ंगा लगाता है, तो भारत समेत दुनिया भर में गुस्सा स्वाभाविक है। दरअसल सुरक्षा परिषद के 13 सदस्यों के इस प्रस्ताव पर चीन के वीटो के कारण मसूद अजहर अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित नहीं हो सका।
आतंकवाद से जूझते हुए अमेरिका और यूरोप के देश चीन के इस व्यवहार से खिन्न हैं और अमेरिका ने तो यहां तक कहा है कि चीन के वीटो के बाद उन्हें इस लड़ाई में अन्य रास्ते खोजने होंगे। मौका है कि चीन के खिलाफ कूटनीतिक से लेकर आर्थिक कदम तक उठाए जाएं ताकि उसे पता चल सके कि ऐसी गैरजिम्मेदाराना करतूत का खामियाजा कितना गंभीर होता है। चीन को अपने इस कुकृत्य की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
चीन की अर्थव्यवस्था निर्यातों पर निर्भर है। भारी सब्सिडी के कारण उसने दुनिया के बाजारों पर कब्जा जमा लिया है। इसके फलस्वरूप दुनिया भर में मैन्युफैक्चरिंग को भारी नुकसान हुआ और उसका प्रभाव भारत की मैन्युफैक्चरिंग पर भी पड़ा। कई मुल्कों में बेरोजगारी बढ़ने का मुख्य कारण चीन ही है। दुनिया भर में अधिकांश देश चीन से इस कारण नाराज भी हैं। पिछले कुछ समय से अमेरिका ने चीन से आने वाले साजोसामान पर आयात शुल्क बढ़ा दिए हैं, जिसके कारण चीन के निर्यातों पर भारी प्रभाव पड़ रहा है। गौरतलब है कि अमेरिका चीन के सामान का सबसे बड़ा बाजार है और उसे चीन से 419 अरब डॉलर का व्यापार घाटा है। भारत भी चीन के सामान का एक बड़ा बाजार है और चीन हमें लगभग 76 अरब डॉलर का सामान निर्यात करता है और चीन से हमारा व्यापार घाटा 63 अरब डॉलर है।
चीन न केवल दुनिया के लिए आर्थिक खतरा है, बल्कि वह अपने पड़ोसी देशों की सीमाओं की सुरक्षा के लिए भी खतरा बना हुआ है। चीन के अपने लगभग सभी पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद हैं, क्योंकि चीन उन देशों की भूमि पर अपना अधिकार जताता रहता है। भारत के पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने देश को चेतावनी दी थी कि चीन भारत का नंबर एक दुश्मन है। उस समय देश ने उनकी चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया था, लेकिन चीन द्वारा हाल की गतिविधियों से जॉर्ज फर्नांडिस की यह चेतावनी बरबस याद आ जाती है।
आज दुनिया भर में चीन के खिलाफ माहौल है, और चीन के इस कुकृत्य के लिए इससे अच्छा मौका दुनिया के पास नहीं है। अब समय आ गया है कि भारत चीन से ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ (एमएफएन) का दर्जा वापस ले। पूर्व में की गई ऐसी कार्रवाई से चीनी सामानों के आयात पर असर देखा गया है, लेकिन प्रतिबंधों को और कड़ा करने की जरूरत है। वर्ष 2018 के बजट में जो चीनी सामान पर आयात शुल्क बढ़ाए गए उससे छह माह में ही चीनी आयात 2.5 अरब डॉलर कम हो गया। यानी साल भर में इसके पांच अरब डॉलर कम होने की पूरी उम्मीद है। इसके अलावा सरकार ने तीन बार चीन से आने वाले सामानों पर आयात शुल्क बढ़ाया है, जिसमें वस्त्र और कई गैर जरूरी आयात शामिल हैं। फिर भी चीन से आने वाले आयातों पर असर पड़ रहा है। लेकिन इतना असर काफी नहीं है। हमें और ज्यादा प्रयास करने होंगे। डब्लूटीओ समझौते के अनुसार जो आयात शुल्क लगाया जा सकता है, उससे भी कम शुल्क चीनी सामानों पर लगाया जाता है। इसलिए चीनी आयात को कम करने के लिए भारत सरकार को शुल्क बढ़ा देना चाहिए।
चीन फिलहाल आर्थिक मोर्चे पर काफी जूझ रहा है और अमेरिका ने भी उसके खिलाफ व्यापार युद्ध शुरू किया हुआ है। इस व्यापार युद्ध के चलते अमेरिका ने चीन से आने वाली तमाम वस्तुओं पर आयात शुल्क में खासी वृद्धि की है, जिसका असर चीन की अर्थव्यवस्था पर पड़ना स्वाभाविक है। चीन के खिलाफ इस प्रकार के आर्थिक कदम उठाने के विरोध में कई प्रकार के तर्क भी दिए जाते हैं। कहा जाता है कि देश में चीन के आयातों के कारण उपभोक्ताओं को कई वस्तुएं सस्ती मिल जाती हैं। पर वे भूल जाते हैं कि सस्ता सामान उपलब्ध कराने के लिए देश की सुरक्षा, संप्रभुता और सम्मान को गिरवी नहीं रखा जा सकता।
आज चीन के भारत के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार के चलते भारत की जनता में बहुत रोष है और वे उसके लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं। कई सर्वेक्षणों से भी यह बात सिद्ध होती है कि देश की जनता चीनी माल को त्यागने के लिए तैयार है और वो सरकार से यह अपेक्षा करती है कि इन सामानों के भारत में आने पर रोक लगनी चाहिए। अमेरिका और यूरोप ने चीनी टेलीकॉम कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू किया है, जो उन देशों की खुफिया जानकारियां चीन तक पहुंचा सकती हैं। सुरक्षा की दृष्टि से चीन के रक्षा और टेलीकॉम उपकरणों पर भी प्रतिबंध लगाने की जरूरत है।