साभार: जागरण समाचार
लोकसभा चुनाव 2019 के मद्देनजर आम आदमी पार्टी (AAP) के साथ गठबंधन हो या नहीं, लेकिन कांग्रेस में गांठ तो पड़ ही गई है। प्रदेश के तमाम वरिष्ठ नेता अलग-अलग खेमों में बंटे नजर आ रहे हैं। इन खेमों में एक
दूसरे पर अंगुली भी खूब उठ रही है। आलम यह हो गया है कि AAP के साथ गठबंधन नहीं भी होगा, तब भी विधानसभा चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन में गिरावट आना तय हो गया है। गठबंधन को लेकर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष शीला दीक्षित और तमाम पूर्व अध्यक्षों की राय जुदा हो गई है।
अजय माकन और शीला के बीच 36 का आंकड़ा पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के दरबार तक पहुंच गया है। राज्यसभा सदस्य कपिल सिब्बल प्रदेश कार्यालय की तमाम बैठकों से दूरी बनाकर चल रहे हैं। सभी पूर्व सांसदों में आपसी विश्वास इस हद तक डावांडोल है कि हर कोई अपनी टिकट बचाने में लगा हुआ है। चूंकि तीनों कार्यकारी अध्यक्ष हारून यूसुफ, देवेंद्र यादव और राजेश लिलोठिया भी चांदनी चौंक, पश्चिमी दिल्ली व उत्तर पश्चिमी दिल्ली से दावेदारी कर रहे हैं, ऐसे में उक्त तीनों ही सीटों पर पिछले पांच साल से मतदाताओं के बीच काम कर रहे पार्टी के पूर्व सांसद न केवल सकते में हैं बल्कि टकराव की राह पर भी कदम आगे बढ़ा रहे हैं।
विडंबना यह कि खुद दावेदार होने के बावजूद तीनों कार्यकारी अध्यक्ष दिल्ली की सात सीटों के लिए आए कुल 74 आवेदनों में से हर सीट के लिए तीन- तीन नामों का पैनल बनाने में लगे हुए हैं। पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेता प्रदेश कार्यालय आने से परहेज करने लगे हैं। किसी औपचारिक बैठक में आना तो मजबूरी है, लेकिन इससे इतर उनका कहना है कि मैडम से बात करना ही मुश्किल हो जाता है। वजह, मैडम को जो लोग हर समय घेरे रहते हैं, उनके बीच वे खुद को बात करने में असहज महसूस करते हैं। पार्टी के कद्दावर नेता तो दो कार्यकारी अध्यक्षों के व्यवहार पर भी अक्सर अंगुली उठा रहे हैं।
आलम यह भी है कि माकन की टीम में शामिल लोग ही अब प्रदेश कार्यालय में नजर आना बंद हो गए हैं। जानकारों के मुताबिक पार्टी का एक वर्ग गठबंधन का विरोध इसलिए कर रहा है, क्योंकि इससे विधानसभा चुनाव में पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है, लेकिन कड़वा सच यह है कि इस समय जिस तरह पार्टी बिखर रही है, उससे भी विधानसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बहुत बेहतर होता नहीं लग रहा।
अगर सभी बड़े नेता अपने फायदे नुकसान के बारे में सोचते रहेंगे तो अन्य नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं का भी पार्टी से मोह भंग होना तय है। नाम न छापने के अनुरोध पर कई कद्दावर नेताओं का कहना है कि पार्टी को इतना नुकसान गठबंधन से नहीं होगा जितना कि AAP के खिलाफ कुछ न बोलकर और कुछ न करके होगा। इससे तो यही लगता है कि आप और कांग्रेस में वैचारिक गठबंधन शायद हो ही गया है। पार्टी के कामकाज का एजेंडा भी केवल गठबंधन का विरोध या समर्थन भर रह गया है, इसके अलावा कुछ नहीं।