एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
साभार: भास्कर समाचार
चकाचौंध और ग्लैमर से दूर एक स्कूल है, हरिजन ज्ञान मंदिर। हावड़ा स्टेशन से नौ किलोमीटर दूर ताराताला के इस सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में 175 गरीब छात्र पढ़ते हैं। कई बच्चे अपने परिवारों की पहली पीढ़ी हैं, जो पढ़ाई कर रही है। इनके पेरेंट्स दिहाड़ी मजदूर हैं और बच्चों को रोज स्कूल भेजने में उनकी कोई रुचि नहीं है। फिर भी यहां रोज बच्चों की उपस्थिति 65 से 70 की रहती थी। शनिवार को इनकी संख्या और बढ़ जाती, क्योंकि मिड डे मिल में अंडा मिलता है। लेकिन, यह स्थिति अगस्त तक थी। अब तो उपस्थिति 120 से ऊपर पहुंच गई है। कारण मेनू में अंडा शामिल करना नहीं है, बल्कि बास्केबॉल है।
जनवरी में असिस्टेंट टीचर राकेश तिवारी ट्रेन ट्रेनर प्रोग्राम में गए थे। इसे जूनियर एनबीए ने पश्चिम बंगाल बास्केटबॉल एसोसिएशन के कोर्ट पर आयोजित किया था। प्रोग्राम का लक्ष्य संभावित टीचर्स ट्रेनर्स को बास्केटबॉल के बारे में बताना था, ताकि वे अपने स्कूलों में इसे बढ़ावा दे सकें। पहली बार तिवारी ने बच्चों से इस गेम के बारे में बात की तो उन्हें कुछ भी नहीं पता था लेकिन, उनमें रुचि थी। उनकी आंखों में चमक गई, जब उन्हें बॉल दिखाई गई। फिर उन्हें धीरे-धीरे बैसिक्स जैसे फुटवर्क, पासिंग, शूटिंग और खेल के नियमों के बारे में बताया गया।
लेकिन बास्केटबॉल और स्कूल को बदलने में एक निर्णय ने अहम भूमिका निभाई कि हरिजन ज्ञान मंदिर में रोज स्पोर्ट्स का एक पीरियड शुरू किया गया। आज जैसे ही घंटी बजती है, बच्चे हेड टीचर के रूम की तरफ दौड़ पड़ते हैं, जहां बॉल रखी रहती है। इसके बाद कोर्टयार्ड का रुख करते हैं। यहां टूटी दीवार पर नेट झूलती मिलती है। फ्रीहैंड एक्सरसाइज के एक राउंड के बाद बच्चे तिवारी की देखरेख में खेलते हैं।
टीचर और ही बच्चे इस फेमस फिल्म कोच कार्टर के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। लेकिन ये उनकी अपनी रियल लाइफ ड्रामा स्टोरी है। हेड टीचर रमा शंकर सिंह खुश हैं, क्योंकि छात्र पढ़ाई में भी रुचि दिखाने लगे हैं, क्योंकि उन्हें पढ़ाई के बाद खेलने का लालच रहता है। इस बात ने एनबीए इंडिया के शीर्ष अधिकारियों का ध्यान खींचा है।
फंडा यह है कि अगरबच्चे अापके रास्ते पर नहीं चले तो उनके रास्ते पर आप जाइए और फिर उन्हें अपने रास्ते पर लाइए। यह संभव है।
2005 में आई हॉलीवुड की फिल्म कोच कार्टर की कहानी सच्ची घटना पर आधारित थी। 1999 में केन कार्टर ने कैलिफोर्निया के रिचमंड इलाके में अपने सुविधाहीन हाई स्कूल में बास्केटबॉल कोच का जॉब शुरू किया। बुरे
व्यवहार और बुरे प्रदर्शन दोनों में कार्टर को सुधार करना था। उन्होंने सभी के लिए सख्त अनुशासन लागू किया। सभी से सम्मानजनक व्यवहार करने और ड्रेस कोड का पालन करने के लिए कहा। शुरुआती विरोध जल्द ही गायब हो गया, क्योंकि कार्टर की देख-रेख में टीम अपराजेय बन गई। हालांकि अति आत्मविश्वास से भरी टीम जल्द ही भटक गई और पढ़ाई में कई छात्रों का प्रदर्शन खराब रहा। कार्टर ने बास्केटबॉल बंद कर दिया। कोर्ट पर ताला लगा दिया और शर्त रखी कि यह तब तक बंद रहेगा जब तक टीम पढ़ाई में अच्छा नहीं करेगी। 2 घंटे 16 मिनट की फिल्म में कार्टर अपने तरीके से काम करने के लिए संघर्ष करते दिखते हैं। वे बच्चों को यह समझाने के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं कि अच्छे मूल्य उनके भविष्य के लिए जरूरी हैं। आखिर में वे पाते हैं कि टीम पर उनकी उम्मीद से भी ज्यादा असर हुआ है। फिल्म में कार्टर पढ़ाई को बास्केटबॉल से जोड़ते हैं और उन्हें ड्रग जैसी लत से बाहर निकालने में मदद करते हैं। उन्हें बेहतर इंसान बनाते हैं। फिल्म टीनएजर्स को यह बताने का प्रयास है कि सुधार की दिशा में पहला कदम एजुकेशन है। इससे वे गरीबी और हिंसा के दुष्चक्र से निकल सकते हैं। चकाचौंध और ग्लैमर से दूर एक स्कूल है, हरिजन ज्ञान मंदिर। हावड़ा स्टेशन से नौ किलोमीटर दूर ताराताला के इस सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में 175 गरीब छात्र पढ़ते हैं। कई बच्चे अपने परिवारों की पहली पीढ़ी हैं, जो पढ़ाई कर रही है। इनके पेरेंट्स दिहाड़ी मजदूर हैं और बच्चों को रोज स्कूल भेजने में उनकी कोई रुचि नहीं है। फिर भी यहां रोज बच्चों की उपस्थिति 65 से 70 की रहती थी। शनिवार को इनकी संख्या और बढ़ जाती, क्योंकि मिड डे मिल में अंडा मिलता है। लेकिन, यह स्थिति अगस्त तक थी। अब तो उपस्थिति 120 से ऊपर पहुंच गई है। कारण मेनू में अंडा शामिल करना नहीं है, बल्कि बास्केबॉल है।
जनवरी में असिस्टेंट टीचर राकेश तिवारी ट्रेन ट्रेनर प्रोग्राम में गए थे। इसे जूनियर एनबीए ने पश्चिम बंगाल बास्केटबॉल एसोसिएशन के कोर्ट पर आयोजित किया था। प्रोग्राम का लक्ष्य संभावित टीचर्स ट्रेनर्स को बास्केटबॉल के बारे में बताना था, ताकि वे अपने स्कूलों में इसे बढ़ावा दे सकें। पहली बार तिवारी ने बच्चों से इस गेम के बारे में बात की तो उन्हें कुछ भी नहीं पता था लेकिन, उनमें रुचि थी। उनकी आंखों में चमक गई, जब उन्हें बॉल दिखाई गई। फिर उन्हें धीरे-धीरे बैसिक्स जैसे फुटवर्क, पासिंग, शूटिंग और खेल के नियमों के बारे में बताया गया।
लेकिन बास्केटबॉल और स्कूल को बदलने में एक निर्णय ने अहम भूमिका निभाई कि हरिजन ज्ञान मंदिर में रोज स्पोर्ट्स का एक पीरियड शुरू किया गया। आज जैसे ही घंटी बजती है, बच्चे हेड टीचर के रूम की तरफ दौड़ पड़ते हैं, जहां बॉल रखी रहती है। इसके बाद कोर्टयार्ड का रुख करते हैं। यहां टूटी दीवार पर नेट झूलती मिलती है। फ्रीहैंड एक्सरसाइज के एक राउंड के बाद बच्चे तिवारी की देखरेख में खेलते हैं।
टीचर और ही बच्चे इस फेमस फिल्म कोच कार्टर के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। लेकिन ये उनकी अपनी रियल लाइफ ड्रामा स्टोरी है। हेड टीचर रमा शंकर सिंह खुश हैं, क्योंकि छात्र पढ़ाई में भी रुचि दिखाने लगे हैं, क्योंकि उन्हें पढ़ाई के बाद खेलने का लालच रहता है। इस बात ने एनबीए इंडिया के शीर्ष अधिकारियों का ध्यान खींचा है।
फंडा यह है कि अगरबच्चे अापके रास्ते पर नहीं चले तो उनके रास्ते पर आप जाइए और फिर उन्हें अपने रास्ते पर लाइए। यह संभव है।