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कुछ दिन पहले की बात है। एक दिन अचानक संतोष जी मिल गए। मेरे संस्थान में ही काम करते हैं, पर दूसरे विभाग में होने के कारण नियमित मिलना नहीं हो पाता। मेरे ख्याल से करीब डेढ़ साल बाद मिले होंगे।
मुङो देखकर खुश हो गए। आंखों में चमक आ गई। बोले कई दिनों से आपसे मिलना चाह रहा था। आपको कुछ बताना था। मैं जानने को उत्सुक हो गया। उन्होंने कहा, आपको याद है जब आप सतीश जी के यहां आए थे और उनकी बेटी की काउंसलिंग के बाद मैंने अपने बेटे से मिलवाया था। मुङो याद आ गया। उन्होंने फिर कहा, उस समय मेरा बेटा साइंस स्ट्रीम से पढ़ रहा था, लेकिन उसका रिजल्ट बेहद खराब रहता था। इससे हम सभी काफी दुखी रहते थे। हालांकि वह हमसे कहता था कि उसका साइंस में मन नहीं लगता, पर हमारे दबाव में उसे पढ़ना पड़ रहा था। आपने काउंसलिंग की प्रक्रिया में उससे बात करने के बाद हमसे भी बात की और कहा था कि इसे इसके मन के मुताबिक आर्ट्स स्ट्रीम से पढ़ने दीजिए। हमने आपकी बात पर विचार करते हुए बुङो मन से इसे साइंस की बजाय आर्ट्स के सब्जेक्ट दिला दिया, पर हमें कोई खास उम्मीद नहीं लग रही थी। कुछ महीने बाद तो जैसे चमत्कार ही हो गया। हाल में पीटीएम में टीचर ने खासतौर पर इसकी बेहद तारीफ की और कहा कि इसके तो हर सब्जेक्ट में लगभग शत-प्रतिशत अंक आ रहे हैं। हम सभी इसमें आये इस सकारात्मक बदलाव से हैरान हैं। अब तो उसे कभी पढ़ने के लिए भी नहीं कहना पड़ता, बल्कि वह खुद अपनी पढ़ाई में लीन रहता है। संतोष जी ने इसका श्रेय मुङो देते हुए कहा कि अगर उस दिन आपने पूरे विश्वास से हमें हिदायत नहीं दी होती, तो शायद आज हम अपने बेटे के प्रदर्शन से इतने खुश नहीं होते।
अंधानुकरण की परंपरा: दरअसल, ज्यादातर अभिभावक दूसरों से प्रभावित होकर या उन्हें देखकर अपने बच्चों को भी उसी रास्ते पर चलने के लिए विवश करने लगते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह से वे उसके भविष्य को बेहतर बनाने का प्रयास कर रहे हैं। पर वे यह भूल जाते हैं कि दबाव वाली इस कोशिश में कई बार अर्थ का अनर्थ हो जाता है। आमतौर पर उत्तर भारत के अस्सी प्रतिशत से अधिक अभिभावक अपने बच्चे को इंजीनियर या डॉक्टर ही बनाने का सपना देखते हैं, बिना यह देखे कि उसमें ऐसा बनने की क्षमता है भी या नहीं। यह भी सही है कि ज्यादातर को करियर के अन्य विकल्पों के बारे में पता भी नहीं होता या फिर वे जानने की कोशिश भी नहीं करते। दूसरों का अनुकरण करने का नतीजा यह होता है कि बच्चा अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाता। इससे बच्चे को तो हताशा होती ही है, अभिभावकों के अरमान पर भी पानी फिरने लगता है।
बाहर नहीं, भीतर देखें: इस समस्या का समाधान आपके पास ही है। अपने बच्चे को दूसरों जैसा बनाने की बजाय उसे वही बनाएं, जैसा वह है। बाहर देखने की बजाय उसके भीतर छिपी प्रतिभा देखने की कोशिश करें। वह नकारा कतई नहीं है। उसके भीतर भी कोई न कोई प्रतिभा अवश्य होगी। अगर आप उसे नहीं जान या तलाश सके हैं, तो फिर से कोशिश करें। न समझ में आए, तो किसी अच्छे काउंसलर की सलाह लें, जो किताबी या मशीनी बात करने की बजाय आपके बच्चे के मन को समझ कर उसके मुताबिक उचित सलाह दे सके।
कमी नहीं विकल्पों की: आज के बदलते और लगातार विकसित होते दौर में पढ़ाई और करियर के विकल्पों की कमी नहीं है। करियर के एक से बढ़कर एक क्षेत्र सामने आ रहे हैं। अगर आप अपने बच्चे की पसंद को समझते हुए उसके मुताबिक पढ़ाई करने का अवसर उपलब्ध कराते हैं, तो आप देखेंगे कि आपका बच्चा भी किस तरह अपनी उपलब्धियों से हर किसी को हैरान कर सकता है। बस आपको उसके साथ खड़ा होना होगा। उसमें भरोसा रखना होगा, ताकि उसका मनोबल ऊंचा रह सके और वह आत्मविश्वास के साथ अपने मन की राह पर आगे बढ़ सके। करें नये की तलाश: अगर आपका बच्चा साइंस में अच्छा है और उसी से जुड़े विषयों में आगे बढ़ना चाहता है, तो यह जरूरी नहीं कि वह इंजीनियरिंग की तरफ ही जाए। अपनी रुचि के मुताबिक वह वैज्ञानिक, गणितज्ञ, जीवविज्ञानी, भौतिकविद, अध्यापक आदि भी बन सकता है। उसकी आर्ट्स स्ट्रीम में रुचि है, तो इसमें भी असंख्य आकर्षक विकल्प हैं। बस आप उसे नई-नई चीजें जानने के लिए प्रेरित करते रहें।
विकसित हो समझ: उसे किसी भी चीज को रटने और सिर्फ परीक्षा में अधिक अंक लाने के लिए पढ़ने की बजाय किसी भी विषय के कॉन्सेप्ट या धारणा को समझने के लिए प्रेरित करें। इससे वह सही मायने में ज्ञानवान हो सकेगा। इससे उसमें समझ का विकास होगा और वह किसी भी विषय के बारे में दूसरों से पूछने या उनकी ओर देखने की बजाय खुद निर्णय लेने में सक्षम हो सकेगा।
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