साभार: भास्कर समाचार
कल्पेश याग्निक (दैनिक भास्कर ग्रुप एडिटर)
ढोंगी बाबा व्यक्तिगत समस्याएं सुलझाने का दावा करेंगे। सच्चे गुरु केवल वे उपाय बताएंगे जो समूची मानव जाति पर लागू हों। कभी निजी नहीं। ढोंगी नुस्खे देंगे। सच्चे गुरु कभी नहीं। ढोंगी लाभ देंगे। सच्चे साधू लाभ से ऊपर उठने की बात करेंगे। पाखण्डी सफलता के मंत्र देंगे। अच्छे संत केवल कर्तव्य करने को कहेंगे। ढोंगी स्वयं को ईश्वर कहलवाएंगे। सच्चे ज्ञानी हमेशा आपमें - प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर बताएंगे।
हम संवेदनहीन हो गए हैं।
निर्दोष, साधारण, भले, ईमानदार नागरिक मार डाले जाते हैं। हम कुछ नहीं कहते।
हरियाणा में सड़कों पर हत्यारे रक्त बहाते जाते हैं। हम चुप रहते हैं।
उत्तरप्रदेश में नन्हे बच्चे श्वांस नहीं ले पाते। घुट-घुटकर मरने को विवश कर दिए जाते हैं। हम ठीक से रो तक नहीं पाते।
मुंबई में भ्रष्ट कुप्रशासन, घूूस ले-लेकर नदी-नालों-सरकारी भूखण्डों-सार्वजनिक मैदानों और नालियों तक पर अतिक्रमण होने देता जा रहा है। समुद्र के ठीक किनारे बसे विराट महानगर में उफनती लहरों से निर्लज्ज, निर्दयी और निकृष्ट शासकों और उनके कारिन्दों को कोई भय नहीं खाता। क्योंकि नदियों का शोषण करने से उठने वाले महाजलप्लावन से उनकी सत्ता की ऊंची अट्टालिकाओं का ऊपरी तल कभी नहीं डूबता। विवश निर्धन ही डूबते हैं।
मुंबई में डूबने से बचे, तो किसी पुरातन इमारत में रहने का मृत्युदण्ड आपको मिलेगा। उसके मूल में भी शासकीय पन्ने, चेतावनी, चुनौती और जटिल शासकीय-अर्धशासकीय शब्दावली मिलेगी। नहीं मिलेंगे तो संकेत कि रहवासी असहाय हैं - इसीलिए मरने के लिए छोड़े जा सकते हैं।
कोई पत्ता तक नहीं हिलता। एक आंसू तक नहीं बहता।
कोई दोष ही नहीं मानता। इसलिए कोई कठोर दण्ड कभी भी नहीं पाता।
और ऐसा हमारे शांत रहने से ही हो रहा है। हम भारतीय, सब कुछ सहन करते रहते हैं। हमें धक्का भी पहुंचता है - किन्तु वह क्षणिक होता है।
हमें हमलों-हिंसा-हत्याओं को देखने की आदत पड़ चुकी है। हादसे हमें 'ईश्वर' का प्रकोप लगते हैं।
हमें स्वाभाविक ही लगता है कि सरकारी अस्पतालों में बच्चे, इलाज और ऑक्सीजन के अभाव में मर जाएंगे।
और इनसे, इन सबसे परे - एक भयावह सत्य है।
हमें खुलकर पता है कि प्रत्येक सौ में से निन्यानवे बाबा-साधू-संत-स्वामी वास्तव में ढोंगी हैं। पाखण्डी हैं। भ्रष्ट हैं। पथ-भ्रष्ट हैं। या यौन अपराध में लिप्त हैं। अा्पराधिक-असामाजिक गुण्डों-बदमाशों को अनुयायी बना बैठे हैं। ना-ना प्रकार के कौतुक कर, अंधविश्वास पैदा कर रहे हैं। धोखाधड़ी कर, अंधेर फैला रहे हैं। और मनगढ़ंत, असत्य-आधारित प्रचार-प्रसार कर - लाखों भोले-भाले नागरिकों को अंधभक्त बनाने में कुटिलतापूर्वक सफल हो रहे हैं।
किन्तु हम हैं कि, सभी सच जानने-समझने के पश्चात भी कहीं कहीं उनसे प्रभावित रहते ही हैं।
कड़वा सत्य तो यह है कि हम, हमारे प्रियजन, हमारे परिचित और हमें जानने वाले और हमें मानने वाले - सभी किसी किसी संन्यासी-मौलवी-पादरी से जुड़े हुए हैं - जाे उन्हें मानते हैं - या उनके प्रति शृद्धा-आस्था रखते हैं।
इसमें बुरा क्या है? बल्कि यह तो अच्छी बात है। और नितांत व्यक्तिगत है। इसके बारे में कुछ भी कहना तो निजता के अधिकार का उल्लंघन करना होगा। और वैसे भी, आस्था के आगे क्या?
लाखों अंधभक्त, जो हरियाणा और चार अन्य राज्यों में आग लगा रहे थे, वे अब जाकर 'अंधभक्त' कहलाए। आस्था तो उनकी भी उतनी ही पवित्र थी, जितनी हमारी अपने-अपने 'सम्मानितों' शृद्धा-केन्द्रों के लिए है।
किन्तु कितने ही महान्, नि:स्वार्थ और तेजस्वी व्यक्तित्व के प्रति हमारी आस्था हो - जिस दिन वह तार्किक रहे, सार्थक लगे और व्यावहारिक सच से परे हटने लगे - उसी दिनवह अंधभक्ति हो जाएगी। और हमें पतन की ओर ले जाएगी। संभवत: हमारे कारण, जाने कितनों को हानि, दु:ख और संताप पहुंचाएगी।
जैसा कि हरियाणा पांच राज्यों मे फैली उग्र हिंसा से हुआ।
वहां 20-25 वर्षों से जमे राम रहीम ने तो पाप किया ही। वहां विभिन्न सरकारों ने, विभिन्न राजनीतिक दलों ने तो वोट-बैंक की कलुषित राजनीति के लिए सारे अपराध होने दिए ही। किन्तु इन डेढ़-दो लाख हिंसक उपद्रवियों का क्या करें - जिन्होंने 38 भले लोगों की जान ले ली?
संत, मुनि, ऋषि, संन्यासी, पीर, फ़कीर, पादरी-ब्रदर, फ़ादर आदि की एक महान् परम्परा हमने देखी और सुनी है। और इनमें सच्चे गुरु भी होते हैं/और रहेंगे।
इन सभी के चमत्कार पूर्णत: झूठ हैं - चूंकि मनुष्य जीवन चमत्कार नहीं - केवल कर्म पर ही आधारित होना चाहिए।
और उक्त श्रेणी वाले समस्त आस्था के केन्द्र केवल एक ही कसौटी पर कसे जानेे चाहिए :
त्याग।
यदि कोई पहुंचे हुए संत-मुनि हैं तो उनका जीवन 'त्याग' से तपा हुआ ही होना चाहिए। वो त्याग जो जीवन को सार्थक बनाए। वो त्याग, जो मनुष्य को मनुष्य ही रखे। दानव बनाए। देवता।
क्योंकि 'त्याग' ही संसार का सर्वाधिक कठिन व्यवहार है।
अहंकार का त्याग। सुविधाओं का त्याग। साधनों का त्याग। सत्ता का त्याग। शक्ति का त्याग। सुख का त्याग। विश्राम का त्याग। और अकर्मण्यता का त्याग।
यही एकमात्र अंतर है जो पाखण्डी बाबाओं को पवित्र गुरुओं से अलग करता है। पूरी तरह अलग।
आप नाम लेंगे और पाएंगे कि 'त्याग' ही एकमात्र विभाजक कैसे है। चन्द्रास्वामी से लेकर लात वाले बाबा, नित्यानंद से लेकर पोटली वाले पीर, आसाराम, रामपाल, रामवृक्ष - कोई भी इसी कसौटी पर परखा जा सकता है।
अहंकार-सत्ता-सुख-स्वार्थ से भरे मिलेंगे आस्था के ये आकर्षण।
ठीक ऐसे ही, यदि आप जिसके प्रति शृद्धा रखते हैं - वह व्यक्ति त्याग के उक्त मानदण्डों पर पूर्णत: खरा है - तो ही वह पवित्र गुरु है। अन्यथा पतन का मार्ग है।
और हमारी संवेदना, भावना, करुणा, प्रेम और इन सभी का एकमात्र नाम -मानवता- इसीलिए दम तोड़ती जा रही है, चूंकि हमंे ऐसे पवित्र गुरु मिल ही नहीं रहे। ज्ञानी मिल रहे हैं - त्यागी नहीं।
फिर हमारा नेतृत्व?
जिस नेतृत्व के पास दृष्टि हो - वह समूचे तंत्र को, सारे राज्य को, समस्त वातावरण को दृष्टिहीन बना देता है।
यह दृष्टि, आंख नहीं है। आंख होगी तो भी मायने उतने ही रखेंगी जितना जो दिख रहा है, उसे देखने के लिए चाहिए।
वह दृष्टि तो हम साधारण नागरिकों को चाहिए।
किन्तु हमारे नेतृत्व करने वाले शासकों को तो 'दिव्य दृष्टि' चाहिए। कम से कम 'दूरदृष्टि'।
यह वह विज़न है, जो वो देख पाता है, जो सबको नहीं दिखता।
यह वह दृष्टि है, जो शासक को पहले से बता देगी कि क्या-क्या घट सकता है।
और ऐसा किसी चमत्कारिक तरह से नहीं होगा। स्वाभाविक संकेतों, स्पष्ट कारणों और सहज भांपने की क्षमता ही इसके मूल में रहती है।
जैसे हरियाणा में नरसंहार कभी नहीं होता यदि मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के पास ऐसी दृष्टि होती। पहले ही देख पाते कि किसी भी स्थिति में लाखों लोग जमा नहीं होने चाहिए। पहले ही अभियोजन को पक्का कर देते। पहले ही सुरक्षा वैसी कड़ी कर देते - जैसी कि 20 वर्ष का सश्रम कारावास मिलने वाले दिन की।
यदि योगी आदित्यनाथ के पास यह दृष्टि होती - तो कभी इतने बच्चे, नवजात शिशु घुटकर नहीं मरते। जिस दिन उस अस्पताल में गए थे, उसी दिन कड़ी पूछताछ करते। उसी दिन ऑक्सीजन की आपूर्ति करने की स्थिति का पता चल जाता। उसी दिन सारे घूसखोर अफसर उजागर हो जाते। भारी उपचार व्यवस्था खड़ी हो जाती। जैसी कि 70 मौतों के पश्चात् उन्होंने ही की।
इसी तरह, यदि देवेन्द्र फडणवीस के पास यह दृष्टि होती तो मुम्बई में मीठी नदी पर जमी बहुमंजिला गाद निकालकर कभी की फेंकी जा चुकी होती। जिन अवैध निर्माणों की बारम्बार चर्चा आती है, उन्हें कठोरता से तोड़ चुके होते। जिन भ्रष्ट अफ़सरों के कारण पिछली कई बारिशों में भवन ढहे हैं, उन्हें बर्खास्त कर, सींखचों के पीछे भेज चुके होते। समुद्री उफ़ान आने से नागरिकों के और प्ले स्कूल में बच्चों के पहुंचने से उन नन्हीं जानों के बच जाने के पश्चात भी 30-30 अकाल मौतें हुईं हैं - दृष्टि होती हो सब कुछ कुशल-सुरक्षित रह सकता था।
इस दृष्टि का अर्थ इतना सरल है कि यदि खट्टर, योगी, फडणवीस - या कि महबूबा मुफ़्ती, ममता बनर्जी, पिनराई विजयन आंखें बंद कर लेंगे - तो अंधेरा सुनिश्चित है!
और हम नागरिकों के लिए केवल इतनी दृष्टि आवश्यक है - कि जब राष्ट्र के अलग-अलग हिस्सों में, सरकारों की आपराधिक लापरवाही से लोग सड़कों-अस्पतालों-इमारतों में मर रहे हों तो उनके प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी सीधे-सीधे एक शब्द भी उनपर बोलते नहीं दिखे। इसी तरह सत्ता को जगाए रखने वाले विपक्ष का जिम्मा उठाने वाली सर्वाधिक पुरातन पार्टी कांग्रेस के कर्णधार राहुल गाँधी, इन्हीं मौतों के दौर में, विदेश पर्यटन पर देखे गए।
आप देख सकते हैं कितनी सहज किन्तु कितनी महत्त्वपूर्ण है यह दृष्टि?
हमारे नेताओं में, हमारी सरकारों में, विशेषकर हमारे मुख्यमंत्रियों में ऐसी दृष्टि हो, असंभव है, परन्तु लानी ही होगी।
क्योंकि देशवासियों के पास एक तीसरी आँख है, जिससे सारी सत्ता भस्म हो सकती है।