एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
वे जन्म से ही देख नहीं सकते थे। गरीब परिवार में जन्म हुआ। माता-पिता ऐसे गांव में रहते थे, जहां किसी विकलांग के समाज में घुलमिल जाने की बात कभी सुनी नहीं गई। समाज को पूर्व जन्म के पापों में भरोसा था, इसलिए हर बुरी घटना को वह इस तर्क के साथ स्वीकार कर लेता था कि यह 'कर्मों' का फल है। यानी लोग कभी परिस्थितियों से लड़कर इनसे उबरने का प्रयास नहीं करते थे। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। जब वे बड़े हो रहे थे तो पिता उन्हें अपने साथ खेत में ले जाने लगे, लेकिन वे उनकी कोई मदद नहीं कर पाते। फिर पिता ने तय किया कि उन्हें पढ़ाई भी करनी चाहिए। उन्हें स्कूल जाने के लिए अपने गांव से पांच किमी दूर जाना पड़ता, लेकिन स्कूल में उन्हें पीछे की बेंच पर धकेल दिया जाता। शिक्षक भी ऐसे बच्चे पसंद नहीं करते, जो उन्हें देख नहीं सकते या प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त कर पाते। दूसरे बच्चे उन्हें पीटी क्लास और खेल में अपने साथ शामिल नहीं करते। पिता को अहसास हो गया कि बेटा कुछ सीख नहीं पा रहा है। तो उन्होंने कुछ बचत कर उन्हें स्पेशल स्कूल के लिए हैदराबाद भेज दिया।
वहां मिली करुणा, प्रेम और देख-रेख के कारण वे बदल गए। वे सिर्फ विषय समझने लगे, बल्कि उनमें महारत भी हासिल होने लगी। तवज्जो मिली तो सब कुछ बदल गया। वे शतरंज और क्रिकेट खेलने लगे। उनमें बेहतर होते चले गए। उन्होंने अपनी क्लास में टॉप किया। उन्हें पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ लीड इंडिया प्रोजेक्ट में काम करने का मौका भी मिला। लेकिन इस सभी चीजों से कोई खास फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि 11वीं में उन्हें विज्ञान में प्रवेश नहीं दिया गया। उन्होंने आंध्रप्रदेश राज्य बोर्ड की 10वीं की परीक्षा 90 प्रतिशत से अधिक अंकों से पास की, लेकिन बोर्ड ने कहा कि वे सिर्फ आर्ट्स विषय ही ले सकते हैं। इस पर उन्होंने सरकार के खिलाफ मुकदमा चलाया और छह महीने लड़ाई लड़ी। आखिर में सरकार की ओर से आदेश मिला कि उन्हें विज्ञान विषय लेने दिया जाए, लेकिन 'अपने रिस्क' पर।
उन्होंने सारी किताबें ऑडियो वर्जन में हासिल की और रात-दिन मेहनत करने के बाद 12वीं की परीक्षा दी और 98 प्रतिशत अंक हासिल किए। इसके बाद पहले की ही तरह इनकार एक बार फिर सामने आया, इस बार आईआईटी और बिट्स पिलानी से। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। अमेरिका में प्रवेश के लिए आवेदन किया और उन्हें वहां के चार बड़े संस्थानों- एमआईटी, स्टेनफोर्ड, बर्कले और कार्नेगी मेलान में प्रवेश मिल गया। वे स्कॉलरशिप पर एमआईटी गए, स्कूल के इतिहास में वे पहले इंटरनेशनल ब्लाइंड स्टूडेंट थे। बेचलर्स कोर्स के आखिर तक उनके दिमाग में एक सवाल उठता रहा कि आगे क्या? यह सवाल उसे वहीं ले आया जहां से वे चले थे। जो सवाल उन्हें परेशान कर रहे थे, उनमें शामिल थे- क्यों एक नेत्रहीन छात्र के रूप में क्लास में मुझे पीछे की सीट पर भेज दिया जाता था? क्यों भारत की 10 प्रतिशत विकलांग आबादी को अर्थव्यवस्था से बाहर रखना चाहिए? क्यों नहीं वे भी सभी की तरह सम्मान से आजीविका चला सकते?
वे काम करने भारत लौट आए। मिलिए श्रीकांत बोला से। वे हैदराबाद की बोलेंट इंडस्ट्रीज के सीईओ हैं। यह संस्थान बिना पढ़े-लिखे अपंग कर्मचारियों को ईको-फ्रेंडली डिसपोजेबल कंज्यूमर पैकेजिंग प्रोडक्ट बनाने के काम में रोजगार देता है। कंपनी 50 करोड़ रुपए की है। आज श्रीकांत के चार प्रोडक्शन प्लांट है। एक हुबली (कर्नाटक) में, एक निजामाबाद (तेलंगाना) में और दो हैदराबाद (तेलंगाना) में। एक और प्लांट शुरू होने वाला है, जो शत-प्रतिशत सौर ऊर्जा से चलेगा। यह प्लांट श्री सिटी में शुरू होगा, जो आंध्र प्रदेश की स्पेशल इंटिग्रेटेड बिज़नेस सिटी है। उनकी कंपनी की सह संस्थापक हैं स्वर्णलता। पूरी जिंदगी वे उनकी रीढ़, मददगार और स्पेशल नीड्स टीचर रही हैं और अब बोलेंट के सभी 70 प्रतिशत विकलांग कर्मचारियों को प्रशिक्षण दे रही हैं।
फंडा यह है कि अगरआप अमीर बनना चाहते हैं और अपने भाग्य को बदलना चाहते हैं तो समाज द्वारा तय सीमाओं को निडरता से तोड़ दीजिए।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार
For getting Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking HERE. Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other important updates from each and every field.