Tuesday, December 29, 2015

चिंतनीय: 2016 में विश्व पर मंडराते दो खतरे

साल 2015 खत्म हो रहा है, नई संभावनाओं के साथ नया साल आने को है। समाप्ति की ओर अग्रसर इस साल में राजनीति के क्षेत्र में बड़ी-बड़ी घटनाएं हुईं, किंतु मानवता के लिए 2015 का विशेष महत्व रहेगा। सीरिया-इराक में सक्रिय आतंकी संगठन आइएसआइएस पूरी मानवता के लिए गंभीर खतरा बनकर उभरा है
और दुनिया भर में इसको लेकर बड़ी चिंता व्यक्त की जा रही है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। दूसरा बड़ा खतरा हमारे पर्यावरण पर प्रदूषण के कारण मंडरा रहा है, जिस पर पिछले कुछ समय से दुनिया भर के देशों में इस पर अंकुश लगाने पर विचार-विमर्श हो रहा है। हाल ही में पेरिस में इस पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई। कहावत है कि मां का दूध और धरती की हवा और पानी ही शुद्ध है, पर भारत में आज हवा और पानी सबसे ज्यादा प्रदूषित है। यह समस्या क्यों उत्पन्न हुई, उसे दूर किए बिना केवल कायदे कानून बनाकर इस गंभीर समस्या का निवारण मुश्किल है। 
अगर जलवायु के ऊपर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन पेरिस में हुआ तो इसी साल आतंकवाद का भयानक चेहरा भी पेरिस में ही देखने को मिला। क्या सभ्य समाज आतंकवाद के खिलाफ विजयी होगा? मेरा मानना है कि आतंकवाद को समाप्त करने के लिए जो साधन प्रयोग किए जा रहे हैं उससे आतंकवाद को समूल नाश करना संभव नहीं है। आतंकवाद के दो पक्ष हैं। एक, उसके पीछे का चिंतन और दूसरा, उस चिंतन को व्यावहारिक रूप देने के लिए बंदूक और बम का प्रयोग। इस समस्या का निदान अभी तक केवल अस्त्रों-शस्त्रों में ही देखा जा रहा है, अर्थात् गोली के बदले गोली और बम के बदले बम। जिस चिंतन से यह आतंकवाद उपजता है, उस विचार को समाप्त करना तो दूर उस पर खुले रूप से चर्चा भी नहीं होती। यदि विश्व को आतंकवाद से मुक्ति पानी है तो हमें गोली और बम के साथ उस दर्शन पर खुली और ईमानदार बहस करनी होगी, जिसने भारत पर सन् 712 में आक्रमण करने वाले मोहम्मद बिन कासिम से लेकर सीरिया-इराक में आइएस को पैदा किया। जहां तक जलवायु परिवर्तन का प्रश्न है, हम प्रकृति से जुड़कर ही अपने पर्यावरण की रक्षा कर पाएंगे। भारतीय दर्शन में पर्यावरण का विशेष महत्व है। पर्यावरण विज्ञान भले ही बीसवीं सदी की बात हो, किंतु हमारे वेद-आरण्यक-उपनिषदों में इसकी सम्यक चर्चा है। ऋग्वेद की ऋचाएं तो प्रमुखत: प्रकृति और उसके रक्षक देवताओं को ही समर्पित हैं। किंतु हमारा चिंतन कालांतर में पश्चिम से इतना अधिक नियंत्रित होने लगा कि हम श्रेष्ठ भारतीय परंपरा को बिसार बैठे।
हिंदू दर्शन के अनुसार प्रकृति ने हमें जो दिया है उसके लिए हम आभारी होते हैं। इसीलिए नदियों-पर्वतों-वृक्षों के साथ सूर्य-चंद्रमा-इंद्र-वरुण आदि की उपासना की जाती है। ईसाइयत और इस्लाम जैसे एकेश्वरवादी मतों-पंथों की मान्यताओं के कारण इस चिंतन को ग्रहण लगा। ईसाइयत ने प्रकृति को दोहन के योग्य बताया और मानव को उसका नियंता बताया। इस अतिरेकी विचारधारा के कारण मानवता उन तमाम विकृतियों से जूझ रही है, जो प्रकृति के अनियंत्रित दोहन से जनित हैं। भारतीय चिंतन में सूर्य को इस सृष्टि का देवता माना जाता है। सूर्य प्राकृतिक ऊर्जा का अक्षय स्नोत है, किंतु हमने सौर ऊर्जा को एक विकल्प के तौर पर विकसित करने की आवश्यकता ही नहीं समझी। बिजली उत्पादन के लिए मुख्यत: कोयले पर आश्रित रहने के कारण ही आज यह बदहाली है कि देश के कई बिजली उत्पादक संयंत्र या तो ठप पड़े हैं या क्षमता से कम उत्पादन कर रहे हैं। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का ही दुष्परिणाम है। हम भारतीयों की एक खास कमजोरी है। हम अपने छोटे-छोटे स्वार्थो के कारण व्यापक हितों की अक्सर अनदेखी करते हैं, जिसकी बड़ी कीमत समाज को चुकानी पड़ती है। बिजली और पानी के बिलों का भुगतान करने में आनाकानी या इन सेवाओं की चोरी के दुष्परिणाम स्वरूप न तो स्वच्छ जल उपलब्ध होता है और न ही स्थायी रूप से बिजली की आपूर्ति हो पाती है। हम बिजली के लिए इनवर्टर, जेनसेट और पानी के लिए आरओ सिस्टम लगाकर कई गुना ज्यादा कीमत अदा करते हैं। हममें से अधिकांश सार्वजनिक जीवन से दूर रहते हैं। जो काम पुलिस का है, उसके लिए हम हर सोसायटी के बाहर गार्ड और गेटेड कम्युनिटी की समानांतर व्यवस्था करते हैं। मैं पिछले दिनों यूरोप की यात्र से लौटा हूं। वहां के नल के पानी का कहीं भी किसी भी मानक पर परीक्षण करा लें, हमारे यहां के बोतलबंद मिनरल वाटर से वह शुद्ध निकलेगा। क्या कभी इसकी कल्पना की जा सकती थी कि एक दिन शुद्ध हवा भी डब्बाबंद होकर बिकेगी? चीन में प्रदूषण का स्तर खतरे से ऊपर है। वहां दस दिनों के अंदर एक बहुरराष्ट्रीय कंपनी ने अस्सी लाख शुद्ध हवा के डब्बे बेच डाले।1दिल्ली में ‘आप’ की सरकार ने नववर्ष के उपहार स्वरूप प्रदूषण से निपटने के लिए सम-विषम नंबर वाली गाड़ियों के नियत दिनों पर सड़कों पर उतारने का फामरूला निकाला है। दिल्ली सरकार की यह पहल बचकाना और अव्यावहारिक है। यदि सरकार इस समस्या को लेकर गंभीर है तो उसे कुछ सार्थक कदम उठाने चाहिए। दिल्ली में पैदल चालकों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। फुटपाथ पर दुकान वालों का या रेहड़ी-पटरी वालों का अतिक्रमण रहता है। ऐसा नहीं है कि फुटपाथ से अतिक्रमण हटाया नहीं जा सकता। दिल्ली में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां फुटपाथ पर कोई अतिक्रमण नहीं है। इसी तरह यहां साइकिल चालकों के लिए भी अलग से ट्रैक नहीं हैं। साइकिल चालकों को वाहनों के साथ ही चलना पड़ता है, जो उन्हें हमेशा असुरक्षित महसूस कराता है।
सड़कों पर कितनी गाड़ियां उतरती हैं, उससे प्रदूषण पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। अपने गंतव्य तक पहुंचने में गाड़ियों को यदि आधे या एक घंटे की जगह तीन-चार घंटे सड़कों पर तेल फूंकना पड़े तो स्वाभाविक तौर पर प्रदूषण भी उतना ही फैलेगा। एलिवेटेड रोड और टनल बनाकर सरकार मौजूदा सड़कों से वाहनों का बोझ कम कर सकती है। बुनियादी संरचनाओं के विकास के लिए धन की आवश्यकता स्वाभाविक है। इसके लिए सरकार को पेट्रोल और डीजल पर अधिक कर लगाना चाहिए। इससे जो धन अर्जित हो उसका प्रयोग केवल सार्वजनिक परिवहन विकास पर ही होना चाहिए। दूसरे राज्यों में जाने वाले वाहनों के दिल्ली में प्रवेश पर कॉरिडोर बनाकर रोक लग सकती है। बिगड़ता हुए पर्यावरण और इस्लामी आतंक ने दुनिया को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है। दोनों समस्याओं पर निश्चित विजय प्राप्त करने के लिए ईमानदार चिंतन, खुली बहस और संकल्प शक्ति की आवश्यकता है। अभी तक इस लड़ाई में इन बातों का अभाव है। यदि इन मामलों में सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो 2016 के अंत में हमारी स्थिति बेहतर होने की बजाय और बदतर होगी। 
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं) 

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साभारजागरण समाचार 
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