Monday, December 28, 2015

लाइफ मैनेजमेंट: छोटे शहर की जीवन शैली साकार कर सकती है महानगरीय हसरतें

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा) 
मैं महाराष्ट्र में सड़क यात्रा पर था। नासिक से औरंगाबाद जाते हुए मैंने दो चीजें देखीं। एक तो गत शुक्रवार को दिवंगत महान अभिनेत्री साधना को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए हुई शोकसभा। पार्लर का नाम था 'साधना ब्यूटी पार्लर।' बोर्ड पर साधना का बड़ा-सा चित्र है, जिसमें वही हेयर स्टाइल है, जो उनके पति निर्देशक आरके नायर ने उन्हें दी थी। बोर्ड पर अन्य हैयर स्टाइल वक्त के साथ बदलती रही, लेकिन साधना का चित्र पिछले 45 वर्षों में कभी नहीं बदला, जब यह पार्लर खोला गया था। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। यह देश के भीतरी भागों पर बॉलीवुड का असर है। परंतु अब वे दिन हवा हुए जब बॉम्बे और अब मुंबई की प्रेरणादायी कहानियां माहौल पर हावी थीं। दूसरी बात थी उसी गांव में फर्टीलिटी क्लीनिक, जिसकी आबादी और घर मिलाकर 1000 से ज्यादा नहीं होते। परंतु क्लीनिक में आसपास के सौ से ज्यादा गांवों से लोग आते हैं।
वह कहानी याद करें जिसमें अन्नू कपूर द्वारा अभिनीत डॉ. बलदेव चड्‌ढा का पात्र नई दिल्ली के दरियागंज में फर्टीलिटी क्लीनिक स्पर्म बैंक चलाता है। डॉ. चड्‌ढा योग्य फर्टीलिटी एक्सपर्ट हैं अौर वे उच्च गुणवत्ता और विशेषीकृत स्पर्म की गारंटी देते हैं। दुर्भाग्य से उनके पास सफल मामलों की बजाय विफल मामले ही ज्यादा हैं। एक स्वस्थ और उच्च प्रदर्शन वाला डोनर वक्त की मांग होती है। आयुष्यमान खुराना द्वारा अभिनीत विकी अरोरा लाजपत नगर का आकर्षक पंजाबी युवा है। वह डॉली नामक विधवा महिला का एकमात्र बेटा है, लेकिन वह मां के लिए कोई आर्थिक सहारा नहीं है। डॉली अपने घर से ही छोटा-सा ब्यूटी पार्लर चलाती है। किस्मत की बात कि एक छोटे-से झगड़े में डॉ. चड्‌‌ढा और विकी आमने-सामने जाते हैं। डॉक्टर निष्कर्ष निकालता है कि विकी वह डोनर हो सकता है, जिसकी उन्हें तलाश है। स्पर्म की उसकी मांग के मानकों पर यह युवा खरा ठहर सकता है। इसके बाद तो चड्‌ढा दिन-रात विकी को डोनर बनने के लिए राजी करने में बीताते हैं, जब तक कि विकी राजी नहीं हो जाता। वह स्पर्म बैंक में काम करने वाली सुंदर बंगाली लड़की अशिमा राय (यामी गौतमी) की ओर आकर्षित होता है। हालांकि, जल्दी ही स्पर्म डोनर के विकी के इतिहास के कारण उनकी खूबसूरत दुनिया ध्वस्त हो जाती है। थोड़े भावनात्मक उतार-चढ़ाव के साथ विकी डोनर स्पर्म डोनेशन पर हल्की-फुल्की फिल्म थी। इसमें बड़े रोचक तरीके से ऐसे विषय को लिया गया था, जिस पर बात करने में लोगों को संकोच होता था। इस क्लीनिक के बाहर उसी बॉलीवुड फिल्म 'विकी डोनर' का नया पोस्टर लगाया गया है। फिल्म रिलीज होने के तीन साल बाद इस फिल्म ने डॉक्टर के पेशे को कहीं ज्यादा आसान बना दिया है और पड़ोस के गांवों से आने वाले लोगों को इस विषय पर विचार-विमर्श करने में कोई दिक्कत नहीं होती, जिस पर कुछ साल पहले उनके समाज में इस तरह से बात नहीं की जा सकती थी। ऐसा इसलिए है, क्योंकि 'विकी डोनर' जिसे जूही चतुर्वेदी ने लिखा था, की सामग्री ऐसे ही किसी छोटे कस्बे से आई थी। सारे छोटे कस्बों, गांवों में कई बातें हो रही हैं। दर्शक वास्तविक जीवन से बड़ी अपेक्षाओं वाली फंतासियां देखकर ऊब चुके हैं। वे उस दौर से भी तंग गए हैं, जिसमें गीत-संगीत तो होता था,लेकिन कोई दमदार कहानी नहीं होती थी।
वाराणसी की पृष्ठभूमि में बनी 'मसान,' हरिद्वार से 'दम लगा के हैशा,' अर्जुन कपूर की एक्शन फिल्म 'तेवर' देश के छोटे कस्बों से ही रही है, जिसमें बहुत अच्छे विषय है और वे बड़ी सफलता अर्जित कर रही हैं। अजय देवगन की 'दृश्यम' भी छोटे कस्बे की कहानी थी, जिसमें अच्छा मुनाफा कमाया। 4000 करोड़ रुपए के सिनेमा उद्योग में स्टोरी लाइन बदल रही है। उसके केंद्र में अब मुंबई नहीं है। बॉलीवुड ऐसी ही अच्छी और यथार्थवादी सामग्री की तलाश में है। जब आप अपने छोटे कस्बे में जिंदगी जी रहे होते हैं तो खुद को वहां की जिंदगी में डुबो लें, जिंदगी के हर पहलु का आनंद लें, क्योंकि आप नहीं जानते कि कब ये अनुभव आपकी महानगरीय अपेक्षाएं पूरी करने में काम आएंगे।
फंडायह है कि जहांभी आप हैं, वहां यादगार जिंदगी जिएं और उन कहानियों को अपने दिमाग में बूनें खासतौर पर यदि आप इस विशाल देश के छोटे शहरों के हैं। ये कहानियां अचानक आपके महत्वाकांक्षी कॅरिअर के लिए राह खोल सकती है।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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