लाइफ मैनेजमेंट: प्रकृति संरक्षण से बढ़ेगी मानव प्रजाति की स्टोरी 1: तहाराबाद का मतलब होता है मोरों का क्षेत्र। महाराष्ट्र के नासिक से सौ किमी से कुछ अधिक दूरी पर मोरधरा टोला में है यह क्षेत्र। दिसंबर महीने के बाद इस क्षेत्र में पानी की भारी किल्लत हो जाती। यहां मोर का शिकार करने की परंपरा थी। क्षेत्र की 135 हैक्टेयर के भूमि में जंगल था। जंगल के पेड़ों का उपयोग जलाऊ लकड़ी के रूप में होता था। आर्थिक स्थिति भयावह थी। अधिकतर घरों में छप्पर की छत थी। यह कहानी थी 2007 तक। तब उन्हें पड़ोसी गांव अवहटी के बारे में पता चला। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। अवहटी सटाना क्षेत्र में है और इसने 1992 में सरकार द्वारा जॉइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट कमेटी (जेएफएमसी) बनाए जाने के पहले ही जंगलों को संरक्षित करना शुरू कर दिया था। 1993 में ही यह शुरूआती जेएफएमसी गांवों में शामिल था और टोला संरक्षण काम में हमेशा आगे रहा। अवहटी में अधिकांश ग्रामीणों के पास 15 से 20 गाय थीं, लेकिन दूध नहीं मिलता था। मेहमान जाए तो 1.5 किमी दूर वीरगांव से दूध मंगवाना पड़ता था। गायें दिन भर घर से बाहर रहतीं और शाम को घर लौटतीं, लेकिन उन्हें पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता था। क्षेत्र में हरियाली की इतनी भयावह स्थिति थी। आज यह गांव आगे गया है और राज्य में उसे प्रतिष्ठित संत तुकाराम अवॉर्ड मिला है और इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर के कुछ पुरस्कार भी गांव में आदर्श हरियाली के लिए मिले हैं।
इस गांव से प्रेरणा लेते हुए तहाराबाद ने टिकाऊ भविष्य के लिए नया कदम उठाया। अन्य आदिवासी गांवों से अलग जहां मोर सहित अन्य पक्षियों को भोजन के लिए मारा जाता है, गांव वालों ने निश्चय किया कि इनकी रक्षा करेंगे। 135 हैक्टेयर में से 25 हैक्टेयर में बांस के पेड़ हैं और 15 हैक्टेयर में अन्य पेड़। धीरे-धीरे यहां वन क्षेत्र बढ़ने लगा और वन विभाग भारी सब्सिडी के साथ इस टोले के लिए एलपीजी की सुविधा लाने में सफल रहा। आज अगर गांव वालों की बकरियां जंगल में तेंदुए का शिकार बन जाती हैं तो वे वन विभाग से मुआवजा नहीं मांगते, क्योंकि वे जानते हैं कि तेंदुए जैसे जानवरों को भी जिंदा रहने के लिए भोजन चाहिए। लोग साथ आए और श्रमदान के जरिये एक चैक डेम बनाया। उन्होंने मोरों और अन्य जानवरों के पानी के लिए गड्ढे भी बनाए। इस साल उन्होंने मोरों के लिए खास गड्ढे तैयार किए हैं। उन्होंने शिकार, पेड़ों की कटाई और जंगलों में जानवरों को चरने देने से रोकने में सफलता हासिल की है। यहां तक कि उन्होंने 5000 रुपए का भारी जुर्माना लगाने का प्रावधान भी किया है अगर किसी का पशु जंगल में चरते दिख जाए। सिर्फ 150 लोगों वाले इस गांव के लोग इस बात पर कड़ी नजर रखते हैं कि कही कोई बाहरी व्यक्ति उनके जंगलों में तो नहीं घुस गया है। आज उनकी आर्थिक स्थिति सुधर रही है, गांव में कंक्रीट के पक्के मकान दिखाई देने लगे हैं। हरियाली उन्हें खेती से स्थायी कमाई दे रही है और अधिकांश लोग प्याज और गेंहूं की फसल लेते हैं। इन दोनों फसलों को पानी की जरूरत होती है। एक तरफ जहां आधे राज्य का गला सूखा है वहीं यह गांव ऐसी अनोखी जगह बन गई है, जहां 400 से ज्यादा मोर गांव वालों की सीटी की आवाज पहचानते हैं और सुनकर भोजन के लिए जाते हैं।
स्टोरी 2: प्रसिद्ध ज्योर्तिलिंग स्थान त्र्यंबकेश्वर से सिर्फ 35 किलोमीटर की दूरी पर है हरसुल। गांव वालों के साथ मिलकर जेएफएमसी यहां पिछले तीन साल से एक गिद्ध रेस्त्रां चला रहा है। गांव वाले गिद्ध रेस्त्रां के लिए मांस लाते हैं। गांव वालों द्वारा यहां छोड़े गए मांस को खाने के लिए आसपास और दूरदराज के क्षेत्र से गिद्ध यहां मांस खाने आते हैं। आसपास के घने जंगलों और पानी के प्राकृतिक स्रोतों के कारण गिद्ध इस क्षेत्र में रहते हैं। गिद्धों की संख्या में हो रही तेजी से कमी के कारण कई राज्य सरकारें इस दिशा में कदम बढ़ा रही हैं। और अब इस सफलता के बाद वन विभाग इसी तरह के गिद्ध रेस्त्रां का प्रस्ताव नागपुर के पास बारगड़ में भी बनाने का प्रस्ताव है।
फंडा यह है कि इंसानोंके लिए ऐसे कई संकेत हैं जो इशारा कर रहे हैं कि पूरी मानव जाति को बचाने के लिए प्रकति को संरक्षित करने की जरूरत है।
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साभार: भास्कर समाचार
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