Friday, December 25, 2015

लाइफ मैनेजमेंट: आप ही लिख सकते हैं कामयाबी की परिभाषा

एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
दुबई में मोटी तनख्वाह और आराम वाली सिटी बैंक की नौकरी से बदलकर उसी शहर के किराना स्टोर में इडली डोसा का बाटर बेचना दिल तोड़ देने वाला बदलाव हो सकता है, लेकिन पीसी मुस्तफा के लिए ऐसा नहीं था। इसी वजह से वे रोजंदारी पर काम करने वाले बाल श्रमिक से 100 करोड़ रुपए की कंपनी के सीईओ हो
गए। केरल के वायानाड स्थित चेन्नालोड गांव में पले-बढ़े मुस्तफा के पिता तीसरी पास कुली थे और मां अनपढ़। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मुस्तफा की भी पढ़ाई में ज्यादा रुचि नहीं थी। जैसे-तैसे छठी कक्षा तक पढ़ाई की। कोई विकल्प होने के कारण पिता ने उन्हें रोजंदारी के अपने काम में शामिल होने को कहा। किंतु उनके गणित शिक्षक मैथ्यू सर इस फैसले से सहमत नहीं थे। उन्हें शायद मुस्तफा में कोई बात नज़र आई होगी। उन्होंने मुस्तफा को स्कूल भेजने को कहा। शिक्षकों के मार्गदर्शन में मुस्तफा ने सिर्फ अपने कमजोर विषयों में अच्छे अंक हासिल किए बल्कि 7वीं कक्षा में प्रथम भी आए। फिर तो पीछे मुड़ने का सवाल ही नहीं था। धर्मांर्थ संस्था की मदद से उन्होंने जूनियर कॉलेज की पढ़ाई पूरी की और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में बैठे, जिसमें राज्य में 63वां स्थान प्राप्त कर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में प्रवेश लेने में कामयाबी हासिल की। 1995 में ग्रेजुएशन के बाद उन्हें अमेरिका की भारतीय स्टार्ट अप कंपनी मैनहटन एसोसिएट्स में जॉब मिल गया। तीन महीने बाद उन्हें सिटी बैंक से प्रस्ताव मिला और वे दुबई चले गए। 1996 आते-आते उन्होंने पढ़ाई के लिए लिया सारा ऋण चुका दिया था। इसके साथ उन्होंने परिवार को भी गरीबी से उबार लिया था। 
पहली बार पिता ने जब बेटे द्वारा भेजे एक लाख रुपए देखे तो उनकी आंखों में आंसू गए। वे तब फिर रोए जब मुस्तफा ने नौकरी छोड़कर 15 लाख रुपए की छोटी-सी बचत से बिज़नेस शुरू करने का निर्णय लिया। इसके लिए उन्होंने चार संबंधियों को साथ लिया। उनमें से प्रत्येक ने 12.5 फीसदी योगदान दिया और शेष 50 फीसदी योगदान मुस्तफा ने दिया। उनके दिमाग में स्पष्ट था कि उन्हें इडली-डोसे का बाटर बेचना है, लेकिन वे इसे अत्याधुनिक नाम देना चाहते थे। उन्होंने नाम गढ़ा 'आईडी फ्रेश' जो इडली-डोसा का संक्षिप्त रूप था। उन्हें 550 वर्ग फीट की जगह मिली और दो ग्राइंडर, एक मिक्सर सिलिंग मशीन के सहारे काम शुरू हो गया। उनका शुरुआती लक्ष्य आस-पास के क्षेत्रों के 20 स्टोर थे। 
इस बीच मुुस्तफा ने आईआईएम बेंगलुरू से एमबीए कर लिया। एक बार उन्होंने 100 पैकेट का लक्ष्य हासिल कर लिया तो मुस्तफा ने 6 लाख रुपए का और निवेश किया और 800 वर्ग फीट के किचन में चले गए। अब क्षमता 2 हजार किलो की हो गई थी यानी 2 हजार पैकेट और 15 वेट ग्राइंडर। उन्होंने पांच कर्मचारी रखे, जो उनके रिश्तेदार थे। दो साल में उन्होंने क्षमता 3,500 किलो प्रतिदिन करके 400 रिटेल भागीदार बना लिए। मांग बढ़ती गई तो उन्होंने औद्योगिक क्षेत्र में व्यवस्थित मैन्यूफैक्चरिंग प्लांट लगाने का फैसला किया, जिससे उन्हें हर माह 12 फीसदी मुनाफा होने लगा। वर्ष 2008 में मुस्तफा ने फिर 40 लाख रुपए का निवेश किया और अमेरिका से पांच विशाल वेट ग्राइंडर आयात किए और उन्हें अपनी जरूरतों के मुताबिक ढाल लिया। इसी साल उन्होंने उत्पादों की सूची में पराठे भी जोड़ लिए और वडा बाटर रवा इडली बाटर भी ले आए। तब तक आईडी फ्रेश ने ऐसे उत्पाद के रूप में पहचान बना ली, जिसमें प्रीजर्वेटिव नहीं डाला जाता। 2012 में उन्होंने चेन्नई, मेंगलुरू, मंबई, पुणे और हैदराबाद शहरों में विस्तार किया। मित्रों और रिश्तेदारों ने शेयर होल्डिंग में हिस्सा लेकर 'आईडी फ्रेश' को अगले स्तर तक पहुंचाया। वर्ष 2013 में दुबई में व्यवसाय शुरू किया, जिससे और विस्तार हुआ। अक्टूबर 2015 में उन्होंने अपने एकाधिक संयंत्रों में 50,000 किलो उत्पादन किया और आमदनी पहुंच गई 100 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष। 
फंडा यह है कि एकबार आप सफलता की परिभाषा तय कर लें तो समाज में कोई भी आप पर वह करने के लिए दबाव नहीं डाल सकता, जिसे समाज उचित समझता है। 

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साभारभास्कर समाचार 
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