साभार: भास्कर समाचार
सुधीर कुमार 22 (MA इतिहास, काशी विश्वविद्यालय)
भारतीय संस्कृति में शिक्षकों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त है और समाज में भी रहा है लेकिन, इत दिनों भौतिकवादी दृष्टिकोण के चलते इस पेशे को नीची निगाह से देखा जाता है। प्राचीन काल की गुरुकुल परम्परा से
लेकर वर्तमान की विद्यालयीन शिक्षा के दौर तक हर युग में शिक्षक पूजनीय रहे हैं। समाज को संवारने, उचित दिशा दिखाने तथा छात्रों को नैतिक रूप से धनवान बनाने में शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। अच्छे शिक्षकों का समाज में सदा ऊंचा स्थान रहा है और आगे भी रहेगा। हालांकि, शिक्षा के बाजारवाद की गिरफ्त में जाने का शिक्षकों पर भी असर पड़ा है। कई शिक्षक पूरा ध्यान विद्यालय में अध्यापन पर केंद्रित करने की बजाय कोचिंत में अधिक रुचि लेते दिखते हैं। पहले कोचिंग वे बच्चे लेते थे, जो पढ़ाई में किसी वजह से पिछड़ जाते थे लेकिन,अब यह फैशन का रूप ले रहा है। आलम यह है कि कोचिंग को सफलता का पर्याय समझा जाने लगा है। स्वाध्याय, कोचिंग का सर्वोत्तम विकल्प है लेकिन, छात्र इससे बचते नज़र आते हैं। कुकुरमुत्ते की तरह खुले निजी विद्यालय कोचिंग संस्थान निम्न आय वर्ग के छात्रों के मन में हीनता की भावना उत्पन्न कर रहे हैं। वहीं, अब छात्र और शिक्षक के संबंध उतने मधुर नहीं रहे, जो कुछ वर्ष पूर्व थे। शिक्षक अपने विद्यार्थियों से संयमी, ईमानदार, सदाचारी होने की उम्मीद तो करते हैं,पर वे स्वयं कई बार इन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते।
विडंबना यह भी है कि आज शिक्षक बनना किसी छात्र का प्राथमिक लक्ष्य नहीं रह गया है। इंजीनियरिंग, मेडिकल तथा लोक सेवा आयोगों की परीक्षाओं में सफलता हाथ लग पाने की स्थिति में युवक शिक्षक बनने की ओर कदम बढ़ाता है। एक शिक्षक अपने श्रम और जुनून से दर्जनों आईएएस अफसर, डाॅक्टर, इंजीनियर तैयार कर सकता है। बावजूद इसके आज के युवा अध्यापन के प्रति रुचि नहीं दिखा रहे हैं। यह चिंता की बात है। शिक्षक बनना युवाओं का अंतिम नहीं पहला लक्ष्य होना चाहिए। तभी शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिभाएं आएंगी और गुणवत्ता बढ़ेगी। इससे शिक्षा के पेश को पुराना गौरव प्राप्त होगा।