Thursday, December 17, 2015

लाइफ मैनेजमेंट: बच्चे परफेक्शन की मशीन नहीं होते

एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
मंगलवार को मैं इस अखबार के नॉलेज सीरिज लेक्चर के लिए मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर पहुंचा तो प्रवेश करते ही पहली चीज नोटिस की वह था पीले रंग का एक बोर्ड, जिस पर काले अक्षरों में लिखा था "photo copy'। मैं कुछ मिनट उस दुकान पर रुका, इस दौरान तीन लोग वहां आए और कहा, 'जेरॉक्स कर देना'। दुकान का मालिक उनसे कागज ले लेता, उसकी फोटोकॉपी करता और कागज उन्हें लौटा देता, एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ, संभवत: जिसका मतलब था, 'ये नहीं सुधरेंगे'। अपनी यात्राओं के दौरान पूरे भारत में कहीं भी खासकर किसी ऐसे कस्बे में जिसकी आबादी 1.27 लाख हो, मैंने ये शब्द नहीं देखे। जहां भी 'जेराक्स' लिखा होता है लोग अपने मूल दस्तावेजों की फोटोकॉपी कराने जाते हैं। यहां तक कि मुंबई जैसे महानगर में भी आपको कभी-कभार ही यह शब्द सुनने को मिल जाएगा। 
इसने मेरे अंदर एक घंटी बजा दी। एक ऐसे शहर की घंटी जो किसी खास स्तर को छू लेना चाहता हो, एक ऐसे शहर की घंटी जो संपूर्णता की दौड़ में भाग रहा है। यह अच्छा लक्षण है, लेकिन इसका असर बच्चों पर कितना बुरा हो सकता है, इसका पता मुझे तब चला जब मैं प्रशांत से मिला, (पहचान जाहिर करने के लिए नाम बदला गया है) एक अच्छे परिवार का बच्चा, जिससे मैं दो साल पहले मिला था। तब वह 13 साल का था। 
इन दो वर्षों में प्रशांत अचानक बड़ा लड़का बन गया और उसके संपूर्ण विकास में काफी तरक्की हुई। यह अच्छी बात है, लेकिन एक छुपी हुई बात जो मैंने नोटिस की वह शायद उसके माता-पिता नोटिस नहीं कर सके। मैंने पाया कि मेरी बातों की तरफ उसका ध्यान बहुत कम था। बीस मिनट की बातचीत में उसने मुझसे एक बार भी कोई सवाल नहीं किया, लेकिन उसने सभी सवालों के बिल्कुल सही जवाब दिए। वह अपनी कम पढ़ी-लिखी मां के सवालों का जवाब तुरंत देता जा रहा था और वह भी अपमान के लहजे में। मुझे लगा कि यह उसके लड़के से आदमी बनने की प्रक्रिया का सुखकर पक्ष नहीं है। इसे उसके माता-पिता द्वारा पूरी तरह नज़रअंदाज किया जा रहा था। यहां तक कि यह व्यवहार अंदर से मां को भी परेशान कर रहा था। उन्होंने मुझसे कहा, 'इन दिनों यह इतना चिड़चिड़ा हो गया है। यह बहुत व्यस्त रहता है और मुश्किल से ही उसे अपने लिए समय मिलता है'। यह बोलते हुए उनके चेहरे पर गर्व का भाव था। और वह इंतजार कर रही थीं कि मैं भी इसकी सराहना करूंगा। वह एक के बाद दूसरी क्लास में जाता है। जो म्यूजिक के पैशन से शुरू होती है, इसके बाद लचीलेपन के लिए योग की क्लास और फिर क्रिकेट, जो कॅरिअर का दूसरा विकल्प हो सकता है और इसके अलावा वीकेंड की हॉबी क्लासेस। 
सुबह 6.30 से रात को 8.30 तक उसका शरीर, दिमाग और आत्मा लगातार कुछ कुछ ग्रहण करते रहते हैं। और वह लगातार भागता रहता है। हर रोज उसका दिमाग सिर्फ एक ही बात से संचालित होता है - मैं कब बिस्तर पर पहुंचुंगा और सोऊंगा। उसके माता-पिता के अनुसार बच्चे के लिए गैर-जरूरी सवाल पूछना वर्जित है या उसे कभी कोई गलती नहीं करना चाहिए, किसी भी गतिविधि में कभी नाकाम नहीं होना चाहिए और अपने हर प्रयास में हमेशा श्रेष्ठ रहना चाहिए, क्योंकि इस तरह की हर गतिविधि के लिए कोच उपलब्ध होना गर्व की बात है। परिवार सातवें आसमान पर था, लेकिन वे यह नहीं देख पा रहे थे कि प्रशांत अपनी रचनात्मकता खो चुका था- एक तरह से अपूर्णता ही रचनात्मकता की ओर ले जाती है। प्रशांत एक खिलौना बन गया है, जो उसके माता-पिता और कोच के बताए अनुसार काम करता है और वे उसकी उसी तरह चाबी घुमाते हैं जैसे हम किसी खिलौने के साथ करते हैं। मेडल और सर्टिफिकेट पाने की उस तथाकथित सफलता के बीच बड़ी समस्या को अनदेखा किया जा रहा है। 
फंडा यह है कि बड़े होने के लिए किसी तरह की क्षमता या अक्षमता की जरूरत नहीं होती, क्योंकि बच्चे मशीन नहीं होते। स्थायी सफलता के लिए रचनात्मकता दिखाने का मौका भी दीजिए। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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