एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
लोकेशन: धनबादरेलवे स्टेशन, झारखंड। समय: रविवार, अलसुबह 5:30 ट्रेन रुकी ही थी, लेकिन तत्काल डिब्बे से कोई उतरा नहीं। मुंबई में ट्रेन से उतरने वाले यात्री तो हमेशा जल्दी में होते हैं और एक-दूसरे के साथ धक्का-मुक्की किए बिना तो वे रह ही नहीं सकते। इसके विपरीत ट्रेन के इस डिब्बे में सारे यात्री एक-दूसरे को
राह दे रहे थे और पूरी तसल्ली से जैकेट जूते पहन रहे थे, अपना सामान चेक कर रहे थे। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। हालांकि, सामान गायब होने की कोई घटना नहीं हुई, जबकि पूरे रास्ते मैं ठीक से सो नहीं पाया, क्योंकि मुझे बताया गया था कि बिहार-झारखंड में मुझे सामान को लेकर अतिरिक्त रूप से सावधान रहना चाहिए। जब उतरने की मेरी बारी आई तो पहली जिस चीज से मेरा सामना हुआ, वह थी 4 डिग्री की कड़कड़ाती ठंड। उसके बाद किसी कुली ने मेरा सुटकेस ले जाने की पेशकश की, जिसे मैंने थोड़ा ठहरने को कहा।
इस अखबार के मेरे साथी दिनेश सिंह जैसे ही उतरे उन्होंने कुली से पहला सवाल किया, 'टैक्सी स्टैंड कहां है?' एक सेकंड में कुली समझ गया कि उसे हमसे कुछ नहीं मिलने वाला है, क्योंकि हमारे हाथ में हल्के स्ट्रॉलर थे और उसकी आंखें दूसरे यात्रियों को खोजने लगीं, लेकिन हमारी उपेक्षा कर तुरंत अपनी खोज में आगे नहीं बढ़ने की बजाय उसका जवाब बहुत सद्भावना से भरा था। उसने कहा, 'आप सीढ़ियां क्यों चढ़ रहे हैं साहेब। इधर, इस शॉर्ट कट, आपातकालीन रास्ते से आप जा सकते हैं। यह पूरा खुला है और आप दो मिनट पैदल चलकर टैक्सी स्टैंड पहुंच जाएंगे।' उसने हमने ठीक से रास्ता दिखाया, जबकि उसकी आंखें किसी दूसरे यात्री को खोजने में लगी थीं।
इस ईमानदारी ने मेरे दिल को छू लिया। वास्तव में आपातकालीन मार्ग नई दिल्ली के राजपथ से कम नहीं था। बहुत अच्छी तरह बना हुआ, साफ-सुथरा। मैंने कभी किसी सरकारी विभाग में खासतौर पर रेलवे में ऐसा रास्ता नहीं देखा था। मेरा दिल कुली में लगा था और मैं उसे उलझाए रखना चाहता था। किंतु इसके पहले कि मैं कुछ कर पाता पड़ोस के डिब्बे के एक युगल ने उसे बुला लिया। जब मैं स्टेशन से बाहर आया तो मेरे सहयोगी टैक्सी सेवा मुहैया कराने वाले से बहस में उलझे थे कि उसने समय पर वाहन नहीं भेजा। वह भी इतनी ठंड में। हालांकि, मैं जानता था कि ड्राइवर की नींद लग गई होगी जैसे कि हम ट्रेन यात्रियों की लग गई थी। मैं टैक्सी का इंतजार करना चाहता था, लेकिन मेरे सहयोगी ने खान भाई की निजी टैक्सी की सेवा ले ली।
जब हम संकरे-से स्टेशन रोड के बाहर आए तो हम प्रसिद्ध श्री राम चरित्र सिंह टी स्टाल पर गरमागरम चाय लेने के लिए रुके। मैंने देखा कि एक वृद्ध महिला पड़ोस की दुकान से आधा किलो बूंदी के लड्डू खरीद रही है। मैं उसकी आंखों में खुशी की चमक देख रहा था। वह दुकानदार को बता रही थी कि उसका पोता इसे बहुत पसंद करता है और फिर गुणवत्ता को लेकर उसे आगाह किया। दुकानदार ने मुस्कराते हुए कहा, 'मांजी बताइए आपके पोते ने मेरी मिठाइयों को कभी खराब बताया है?' ऐसा लगता था कि मिठाई की एक-दूसरे से लगीं 20 से ज्यादा दुकानों का धंधा चौबीसों घंटे अच्छा चलता है, क्योंकि यात्री रास्ते में खुद के खाने के लिए तो नहीं, लेकिन जहां वे जा रहे होते हैं उन रिश्तेदारों के लिए तोहफे में मिठाइयां खरीदते रहते हैं। मैं यात्रियों की इस तहजीब और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इसके असर के बारे में सोचकर अवाक रह गया। धनबाद कोयला खदानों पर फल-फूल रहा है, लेकिन इस संस्कृति से उसकी आर्थिक तरक्की में नया आयाम जुड़ रहा है।
खान भाई ने हमारे साथ चाय ली और उस सवारी के दौरान हमने वासेपुर की सड़कों पर कई यू-टर्न लेने को कहने के बाद भी एक बार भी उन्होंने हमारे साथ बहस नहीं की। वही वासेपुर जिसे लेकर गैंगस्टरों की प्रतिद्वंद्विता पर आधारित फिल्म बनाई गई थी। '17 डिग्री' नाम के होटल में मेरे कुछ घंटों का पड़ाव वहां के कर्मचारियों की गर्मजोशी से भरा रहा। इस प्रदेश की धारणा को लेकर मैं पूरी तरह गलत था और जो भाषा वे इस्तेमाल कर रहे थे वह तो अद्भुत थी, आदर भरी और बिल्कुल साफ-सुथरी। भरोसा नहीं होता कि सड़कों पर ऐसी भाषाभी बोली जा सकती है। जब नॉलेज सीरिज के व्याख्यान के बाद मैंने धनबाद छोड़ा तो मुझे ये पंक्तियां याद आईं: 'चंद लोगों की मोहब्बत भी गनीमत है मियां, शहर का शहर हमारा तो नहीं हो सकता।'
फंडा यह है कि कुछ अच्छे लोग शहर में आने वाले नए आदमी की धारणा को पूरी तरह बदल सकते हैं।
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साभार: भास्कर समाचार
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