Monday, December 14, 2015

आपकी किताबें कई लोगों का अज्ञान दूर करने के काम आएंं

ये नागपुर में शीत ऋतु के महीने थे। हमारा परिवार मुंबई शिफ्ट हो रहा था और चूंकि व्यावसायिक राजधानी के भीड़भरे संकुचित परिवेश में घर छोटा था तो मेरे पिताजी ने हमें कहा था कि यथासंभव कम से कम सामान लेकर मुंबई जाएं। घर का सामान पैक करने का काम हफ्ते भर चला, क्योंकि उन दिनों पैक करने वाले तो होते
नहीं थे। चूंकि दिन-ब-दिन बक्सों की संख्या बढ़ रही ती तो हमें आशंका हुई कि हमारी कॉमिक बुक्स पर वज्रपात होगा। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। हमें लगता कि बड़ों को हमेशा बच्चों की चीजें बेकार ही नज़र आती। ईमानदारी से कहूं तो मैंने और मेरी बहन ने कभी उन्हें एक बार से अधिक नहीं पढ़ा था, क्योंकि हमारे विशाल परिवार के लोग जब भी अाते तो तोहफे में हमारे लिए किताबें ही लेकर आते। फिर पढ़ने की प्यास तो हमेशा बनी रहती। 
मजे की बात है कि मेरी ज्यादातर कहानियों की किताबें रेलवे स्टेशनों पर होने वाली एच व्हीलर्स से खरीदी हुई थीं। इसका कारण भी था। केंद्र सरकार के दफ्तरों में काम करने वाले मेरे सारे दक्षिण भारतीय रिश्तेदार मद्रास (अब चेन्नई) और नई दिल्ली के बीच सफर करते रहते थे। चूंकि नागपुर इन दो स्टेशनों के ठीक बीच में पड़ता था और मेरी माताजी अपने परिवार में बहुत अच्छी कुक मानी जाती थीं, तो इन यात्रियों को कम से कम दो वक्त का भोजन तो नागपुर के हमारे घर से दिया ही जाता था, क्योंकि उन दिनों ट्रेनों में पैंट्री कार तो होती नहीं थी। 
भोजन देने के लिए मैं अपनी मां के साथ स्टेशन जाता। चूंकि नागपुर एक जंक्शन है तो ग्रांड-ट्रंक एक्सप्रेस और तमिलनाडु एक्सप्रेस सहित सारी प्रमुख ट्रेनें वहां 15 मिनट से ज्यादा रुकती थी। ट्रेन आने और चीजों के आदान-प्रदान के बाद मेरा काम ट्रेन के बाहर खड़े रहकर गाड़ी के जाने का सिग्नल होते ही मां को उतरने का संकेत देना था। इस व्यवस्था से मां निश्चिंत होकर रिश्तेदारों से ट्रेन रवाना होने तक गप्पे लड़ा पाती थीं। मैं प्लेटफॉर्म की किताबों की दुकानों के पास खड़ा होकर नए उपन्यास और कॉमिक्स पढ़ा करता था। किताबों में मेरी रुचि देखर मेरे चाचा लोग ट्रेन से उतरते और जो कॉमिक्स मैं पढ़ता रहता, उन्हें खरीदकर मुझे दे देते। मेरे कुछ चाचा तो तीन-चार कॉमिक्स की किताबें भोजन के बदले रिटर्न गिफ्ट में मुझे दे देते। धीरे-धीरे स्टेशन पर जाने का ये किताबें अतिरिक्त आकर्षण हो गईं। घर से बाहर घूमने का मजा मिलता वह अलग। 
हर हफ्ते एक परिवार नागपुर से गुजरता और मैं या मेरी बहन को कॉमिक बुक्स का फायदा होता। लंबे समय में वे परिवार हमारी पसंद-नापसंद से इतने वाकिफ हो गए कि वे जहां से रवाना होते, वहीं से वे किताबें खरीद लेते, रास्ते में पढ़ते और नागपुर आकर हमें तोहफे में दे देते। यही वजह रही कि हमारे घर पर उससे ज्यादा किताबें थीं, जिसकी इजाजत हमारा जीवनस्तर देता था। जब मेरी मां चाचाओं को हमें तोहफे में किताबें देने से हतोत्साहित करती हुई कहतीं, 'वे बहुत ज्यादा कॉमिक्स पढ़ने लगे हैं,' तो वे उनसे कहते हैं, 'वे ज्ञान अर्जित कर अज्ञान से मुक्ति पा रहे हैं।' मुझे उनका यह संवाद बहुत पसंद आता, जिससे हम और किताबें पढ़ने को उत्साहित होते। हालांकि, मैं कोई अकेली किताब तो नहीं बता सकता जिसने मेरी जिंदगी बदल दी हो या वह मेरी जिंदगी का मोड़ साबित हुई, लेकिन उन सबका मिला-जुला असर हुआ है। 
जब हम किताबों की पैकिंग कर रहे थे तो मेरे माता-पिता की राय भिन्न थी। मां कह रह थीं कि हम वे किताबेें ले जा रहे हैं, जिन्हें हम अब कभी पढ़ने वाले नहीं हैं। पिताजी का कहना था कि किताबें तभी रद्दी में निकाली जाएंगी जब बच्चों को स्वयं ऐसा करने की जरूरत महसूस होगी। उन्होंने हम दोनों को बुलाया और कहा, 'अपनी किताबें कभी मत फेंकना। किसी ऐसे व्यक्ति को खोजो, जिसकी रुचि इन किताबों में हो। उसे ये किताबें तोहफे में दे दो खासतौर पर उन्हें जो ऐसी किताबें खरीद नहीं सकते।' वे हमें कोमलता से याद दिलाते कि तुम्हें भी ज्यादातर किताबें तोहफे में मिली हैं। उसके बाद से हमारे रद्दी वाले को कभी किताबें नहीं मिलीं। किसी भी भाषा की और कितनी भी पुरानी क्यों हों, यदि उन्हें हमारे घर से विदा करन की नौबत आए तो उन्हें कोई कोई घर ही मिल जाता। 
फंडा यह है कि हमारी उपयोग की गई चीजों के विपरीत, पुरानी किताबों में अज्ञान से मुक्त करने की क्षमता होती है। खासतौर पर वे उन लोगों को जो ऐसी किताबें खरीद नहीं सकते।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभारभास्कर समाचार 
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