स्टोरी 1: पिछलेसप्ताह पंजाब के बठिंडा के कुछ किसान कीटों के हमले से तबाह हो चुकी कपास की फसलों के लिए मुआवजे के चैक बांटने आए मंत्री के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। उसी समय राज्य के एक अन्य इलाके के 25 से ज्यादा किसान जरबेरा के फूलों के बारे में जानकारी लेने के लिए किसी पॉलीहाउस के दौरे पर थे। इस पौधे
का उपयोग अधिकतर सजावट में होता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। जो किसान विरोध प्रदर्शन के जरिये अपना गुस्सा जाहिर कर रहे थे वे नकारात्मक विचारों से भरे थे, जबकि अन्य दो दर्जन किसान उत्साहित थे और अपनी उपज अमृतसर एयरपोर्ट से सीधे यूरोप और खाड़ी देशों को भेजने की उम्मीदों के बारे में बात कर रहे थे।
ये किसान गेहूं-धान के परंपरागत फसल चक्र को तोड़ते हुए फूलों की खेती शुरू करने की उम्मीद कर रहे थे और अपनी जमीन को नए नज़रिये से देखने को तैयार थे। इस काम के लिए जिस व्यक्ति ने पहला कदम उठाया वे हैं- कुलदीप सिंह धालीवाल। वे अपने आरामदायक घर की सभी आधुनिक सुविधाओं और अमेरिका के अपने फलते-फूलते व्यापार को छोड़कर अपने राज्य के किसानों को फिर से आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से घर लौटे हैं। उन्होंने खुद एक मिसाल कायम कर परिवर्तन लाने की उम्मीद पैदा की है और व्यावहारिक विकल्प सामने रखकर गैर-परंपरागत फसलों को सामने रखा है। अपने प्रेजेंटेशन के लिए उन्होंने एक बेलेंसशीट बनाई और किसानों को आसानी से समझाने के लिए लाभ का अंक सामने रखा। यहां से सबसे नज़दीक फूलों का बाजार गाजीपुर दिल्ली में है, जो 500 किलोमीटर की दूरी पर है। धालीवाल ने अपनी जमीन पर एक एकड़ में पॉलीहाउस बनाकर जरबेरा के फूलों की खेती शुरू की है।
धालीवाल ने हर पौधे पर 35 रुपए खर्च कर एक एकड़ से अधिक भूमि पर 25 हजार पौधे लगाए हैं और उम्मीद है कि एक पौधे से हर साल करीब 30 फूल मिलेंगे। इसमें पॉलीहाउस बनाने, 24 घंटे पानी की व्यवस्था और स्प्रिंकलर सिस्टम बनाने सहित अन्य खर्च शामिल नहीं है। उन्होंने अपना प्रोजेक्ट फरवरी 2015 में शुरू किया था और 2016 के शुरू तक इससे निश्चित रूप से आय होने लगेगी। पंजाब के ग्रामीण इलाकों में युवाओं के शराब और ड्रग के शिकंजे में पड़ते जाने की रिपोर्ट ने धालीवाल को यह कदम उठाने के लिए प्रेरित किया। उनका मानना है कि किसी अन्य इंडस्ट्री की ही तरह किसानों को भी शिक्षित और प्रशिक्षित करने की जरूरत है, जमीन उनकी मशीनरी है और उन्हें पता होना चाहिए कि वे उसी भूमि पर और क्या उगा सकते हैं। इसके अलावा उनकी इस शुरुआत ने करीब एक दर्जन लोगों को रोजगार दिया है, जो किसानी, फूल तोड़ने, पैक करने और उपज को ले जाने जैसे कामों में लगे हैं।
स्टोरी 2: वे उत्तरप्रदेश के बिजनौर जिले के झूजाझालिया जिले के हैं। काम करने विदेश गए थे। एक बार जब अपने गांव आए तो देखा कि वहां काफी समस्याएं हैं, इसलिए इस इंजीनियर ने जर्मनी के म्यूनिख की अपनी नौकरी छोड़ी और गांव की समस्याओं के समाधान के लिए पंचायत चुनाव लड़ने का फैसला किया। इनका नाम है -तरुण शक्तावत। जर्मनी जाने के पहले टीसीएस और महिंद्रा जैसी कंपनियों में नौकरी कर चुके शक्तावत ने आरटीआई के माध्यम से जानने की कोशिश की कि क्यों उनके गांव की हालत सुधारने के लिए कुछ किया नहीं गया? उन्होंने पाया कि सरकार द्वारा जारी फंड में कई तरह की अनियमितताएं हुई हैं। बदलाव लाने के लिए उन्होंने जर्मनी की अपनी 37 लाख रुपए सालाना आमदनी की नौकरी छोड़ दी और अब गांव प्रधान के चुनाव के मैदान में हैं। उनका मानना है कि अगर गांवों के प्रधान ईमानदारी से काम करें तो भारत के गांव भी जर्मनी और बाकी यूरोप की तरह अच्छे बन सकते हैं। और वे इसकी मिसाल पेश कर इसे साबित करना चाहते हैं।
फंडा यह है कि अगरआप अपने समाज में बड़ा बदलाव लाना चाहते हैं तो आपको व्यक्तिगत रूप से मिसाल बनना होगा ताकि अन्य लोग विश्वास कर सकें और उस राह पर चल सकें।
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साभार: भास्कर समाचार
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