Thursday, December 3, 2015

लाइफ मैनेजमेंट: हालात खराब हों तो खुद में बदलाव लाएं

एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
पूर्वी भारत के शहरों में लोगों की अखबार पढ़ने की आदत एक नज़र में आपको आश्चर्य में डाल देगी, लेकिन आप गौर से देखेंगे तो और भी अचरज होगा। पाठक अखबार उठाता है और बिना हैडलाइन पढ़े या प्रथम पेज के ऊपर के आधे हिस्से में कुछ भी पढ़े सीधे नीचे वाले हिस्से पर चला जाता है और सर्वप्रथम वह पहले कॉलम की आखिरी पांच पंक्तियां पढ़ता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं।
 यहां उसे एक यूटिलिटी न्यूज़ आइटम मिलता है, जिसमें गैस कंपनियां बताती हैं कि उस दिन कितने एलपीजी (रसोई गैस) सिलेंडर सप्लाई किए जाएंगे। इससे साफ तौर पर इस क्षेत्र में रसोई गैस की किल्लत के बारे में पता चलता है। एक ऐसा ही शहर असम का बोंगईगांव है, जहां एलपीजी आपूर्ति आज भी बड़ी समस्या है। 2006 में भारत सरकार ने इस शहर को देश के सबसे पिछड़े 250 जिलों में शामिल किया था। इस क्षेत्र को पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि कार्यक्रम से भी मदद मिलती है। सारी मदद के बावजूद यहां रसोई गैस की भारी किल्लत है। 
यह शहर पश्चिमी असम का प्रवेश द्वार है और नगरीय क्षेत्र आबादी के लिहाज से असम का चौथा सबसे बड़ा शहर है। यहां चश्मे की दुकान के मालिक 70 साल के अरुण कर्माकर अन्य लोगों की तरह एलपीजी गैस सिलेंडर का इंतजार करते नहीं बैठे। उन्होंने समस्या का समाधान खोजा। वे पूरे शहर को कुकिंग गैस तैयार करने का एक नया तरीका दिखा रहे हैं। और इससे बागवानी के लिए गोबर की खाद भी मिल रही है और उनकी एलपीजी सिलेंडर पर निर्भरता कम हो रही है। उनके पास एक गाय है, जिससे करीब 4 किलो गोबर और चार लीटर गोमूत्र मिलता है, जिससे वे मार्श गैस तैयार कर रहे हैं, जो मूल रूप से बायो गैस है। यह नम जमीन पर तैयार होती है और इसका मुख्य घटक है मीथेन। उनका तरीका काफी आसान है। वे अपनी गाय का गोबर एकत्र करते हैं और इसे एक सूखे कुएं में डाल देते हैं, जिसमें पहले से ही बड़ी मात्रा में कचरा जमा होता है। इसके बाद प्लास्टिक का एक ड्रम इस पर उल्टा रख दिया जाता है। और दबाव के लिए इस पर कुछ ईंटें रख दी जाती है। कुछ मिनट बाद कचरे और गोबर से बनी मार्श गैस रबर की नली के माध्यम से गैस के बर्नर तक पहुंचने लगती है। जब गैस बनना बंद हो जाती है तो ड्रम में एक काले रंग का पेस्ट बन जाता है। यह तत्व खाद का विकल्प होता है और इसे फूलों और सब्जियों के बगीचों में इस्तेमाल किया जा सकता है। 
उनकी पत्नी को सिर्फ एक एलपीजी सिलेंडर की जरूरत होती है, इसलिए वे सिलेंडर के इंतजार की मुसीबत से दूर हैं। चूंकि कर्माकर के छोटे-से घर में फूलों के बगीचों के लिए पर्याप्त जगह नहीं है, इसलिए वे खाद मुफ्त में उन लोगों को बांट देते हैं, जिनके पास फूलों और सब्जियों के बगीचे हैं। गोबर गैस और खाद बनाने के इस तरीके को वे अन्य लोगों के बीच भी प्रचारित कर रहे हैं। यह शुद्ध, आर्गेनिक खाद बहुत गुणकारी है। स्थानीय लोग, जिन्हें उनके द्वारा तैयार खाद मिल रही है वे भी इस बात को स्वीकार करते हैं। दस लोगों के परिवार के लिए कम से कम पांच गायों की जरूरत होती है, जिससे रोज उनकी कुकिंग गैस की जरूरत पूरी हो सकती है। कर्माकर के पास और गाय रखने की जगह नहीं है, लेकिन फिर भी कभी गैस की कमी से नहीं जूझना पड़ता। यहां तक कि तब भी नहीं जब मौसम सबसे ज्यादा खराब होता है और आपूर्ति बहुत ज्यादा बाधित होती है। यह तकनीक उन्होंने 66 साल की उम्र में गुजरात में एक जागरूकता कार्यक्रम में सीखी थी। घास खाने वाली सिर्फ देसी ब्रीड की गाय के गोबर से ही प्रभावी मार्श गैस बनती है, जबकि आम तौर पर रासायनिक रूप से तैयार चारा खाने वाली क्रॉस ब्रीड गाय का गोबर इस स्तर की गैस नहीं बना सकता। यदि किसी के पास ज्यादा जगह और अधिक संख्या में गाय पालने की क्षमता हो तो संभावनाएं और भी हैं। 
फंडायह है कि बदलावके लिए उम्र, शिक्षा और स्थान बाधा नहीं होती। बुरे हालातों में किसी समस्या को सुलझाने के लिए मदद का इंतजार करने से बेहतर है कि बदलाव लाया जाए। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभारभास्कर समाचार 
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