साभार: जागरण समाचार
पंकज चतुर्वेदी
दीपावली के करीब 15 दिन पहले सुप्रीम कोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा कि आतिशबाजी आम लोगों के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर डाल रही है और इसीलिए सीमित
आवाज एवं कम प्रदूषण वाले पटाखे केवल दो घंटे, रात आठ से दस बजे, ही चलाए जा सकते हैं। यह आदेश आते ही कछ लोगों ने सोशल मीडिया पर नाराजगी जतानी शुरू कर दी और सुप्रीम कोर्ट को हंिदूू धर्म की परंपरा के खिलाफ बताने लगे। सच यह है कि विभिन्न धार्मिक ग्रंथों से यह स्पष्ट हो चुका है कि पटाखे चलाना कभी भी इस धर्म का हिस्सा नहीं रहा है। सनद रहे कि बीते साल दीवाली से पहले दिल्ली ही नहीं देश के एक बड़े हिस्से में ‘स्मॉग’ ने जो हाल किया था उसे याद कर ही सिरहन पैदा हो जाती है। स्मॉग (कोहरे और धुएं के मिश्रण) में जहरीले कण होते हैं जो भारी होने के कारण ऊपर उठ नहीं पाते। जब लोग सांस लेते हैं तो वे फेफड़े में पहुच जाते हैं, जो कैंसर, हृदय रोग और सांस की बीमारी का कारण बनते हैं। पिछले साल भी तीन बच्चों ने संविधान में प्रदत्त जीने के अधिकार का उल्लेख कर आतिशबाजी के कारण सांस लेने में होने वाली दिक्कत को लेकर सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी कि आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी जाए। तब अदालत ने पर्व की जनभावनाओं का खयाल कर पाबंदी से इन्कार कर दिया था, परंतु दिल्ली-एनसीआर की हवा में जहर के हालात देखते हुए इस इलाके में आतिशबाजी की बिक्री पर रोक जरूर लगा दी थी। सब जानते हैं कि देश की सबसे बड़ी अदालत के उस सख्त आदेश का असर बहुत कम हुआ। हालांकि प्रदूषण का स्तर थोड़ा कम तो हुआ था, लेकिन खतरनाक स्तर के दंश से मुक्त नहीं हो पाया था।
यह किसी से छिपा नहीं कि दीपावली की आतिशबाजी दिल्ली सहित देश के करीब 200 शहरों की आबोहवा को जहरीला कर देती है। राजधानी दिल्ली में तो कई सालों से बाकायदा एक सरकारी सलाह जारी की जाती है-यदि जरूरी न हो तो घर से न निकलें। चूंकि हरियाणा-पंजाब में खेत के अवशेष यानी पराली जल ही रही है, साथ ही हर जगह अनियोजित निर्माण, जाम, धूल के कण हवा को दूषित कर रहे हैं ऐसे में बेलगाम आतिशबाजी के कारण हालात बेकाबू हो सकते हैं।
पटाखे जलाने से निकले धुएं में सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, शीशा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर सांसों के जरिये शरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेश में मौजूद पशु-पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाए तो भयानक वायु प्रदूषण होता है। यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाइकल किया जाए तो भी जहर प्रकृति में समाता है और यदि इसे डंपिंग में यूं ही पड़ा रहने दिया जाए तो इसके विषैले कण जमीन में जज्ब होकर भूजल और जमीन को स्थाई और लाइलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं। आतिशबाजी से उपजे शोर के घातक परिणाम तो हर साल बच्चे, बूढ़े और बीमार लोग भुगतते ही हैं। इस पर गौर करें कि रात 10 बजे के बाद वैसे भी पटाखे चलाना अपराध है। कार्रवाई होने पर छह माह की सजा भी हो सकती है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में दिया था जो अब कानून की शक्ल ले चुका है, फिर भी दीवाली पर रातभर पटाखे चलते हैं। देखा जाए तो आतिशबाजी को नियंत्रित करने की शुरुआत ही लापरवाही से है। विस्फोटक नियमावली 1983 और विस्फोटक अधिनियम के परिपालन में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिए थे कि 145 डेसीबल से अधिक ध्वनि तीव्रता के पटाखों का निर्माण, उपयोग और विक्रय गैरकानूनी है। प्रत्येक पटाखे पर केमिकल एक्सपायरी और एमआरपी के साथ-साथ उसकी तीव्रता भी अंकित होनी चाहिए, लेकिन बाजार में बिकने वाले पटाखों पर उसकी ध्वनि तीव्रता अंकित नहीं होती। बाजार में 500 डेसीबल की तीव्रता के पटाखे भी उपलब्ध हैं। यही नहीं चीन से आए पटाखों में जहर की मात्र असीम है और इस पर कहीं कोई रोक टोक नहीं है।
कानून कहता है कि पटाखा छूटने के स्थल से चार मीटर के भीतर 145 डेसीबल से अधिक आवाज नहीं हो। अस्पताल, शैक्षणिक स्थल, न्यायालय परिसर और सक्षम अधिकारी द्वारा घोषित स्थल से 100 मीटर की परिधि में किसी भी तरह का शोर तो कभी नहीं किया जा सकता, लेकिन इस सबकी अनदेखी होती है। परंपरा और धर्म के नाम पर आतिशबाजी चलाने वालों को जानना चाहिए कि प्रदूषण से होने वाली मौतों में भारत शीर्ष पर रहा है। लैंसेट जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015 में वायु, जल और दूसरी तरह के प्रदूषण की वजह से भारत में 25 लाख लोगों ने जान गंवाई। आतिशबाजी नियंत्रित करने के लिए दीपावली का इंतजार करने से बेहतर होगा कि पूरे साल पटाखों में प्रयुक्त सामग्री और उनकी आवाज पर नियंत्रण की कोशिश हो। इसी तरह प्रचार माध्यमों और पाठ्य पुस्तकों के जरिये आम लोगों को यह बताया जाए कि पटाखों के क्या नुकसान होते हैं। जिन ग्रीन पटाखों की बात हो रही है वही बनने चाहिए।