एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
मेरी मां नहाकर बाहर आतीं। गिले बाल एक छोर पर बंधे होते, माथे के बीचोबीच छोटी-सी कुमकुम की बिंदी होती, पल्लू से सावधानी के साथ चेहरा पोंछती हुई ताकि बिंदी फैले नहीं। वे ऐसी किसी एंजेल (देवदूत) की तरह उजली नज़र आतीं जैसे किसी को वरदान देने आई हो। लेकिन वे अचानक 'टोकनी-वाली' के लिए पूंजीवादी बन जातीं और भाव-ताव करने लगतीं, 'कोई नहीं, मैं आपको सिर्फ चार आने दूंगी।' वह महिला उठ खड़ी होती और 'टोकनी' उठाने के लिए मेरी मदद मांगती। मैं बड़ी खुशी से यह करता, इसलिए नहीं कि मुझे सब्जीवाली पर कोई दया आ रही होती बल्कि इसलिए कि उसके कारण मुझे कुछ देर के लिए पढ़ाई से छुट्टी मिल जाती। मैं जब उसे मदद कर भी रहा होता तो भाव-ताव चलता रहता। वह कहती, ''बोनी' का वक्त है इसलिए मैं पांच आने (30 पैसे) में दे रही हूं' और मेरी मां हिमालय की चट्टान की तरह कभी चार आने के भाव से टस से मस नहीं होतीं। आखिरकार एंजेल की विजय होती और मुझे फिर 'टोकनी' वाली क्रिया दोहराने का मौका मिलता।
एंजेल अपने लंबे बालों से अब भी टपकते पानी के साथ पालक रखने किचन में जातीं और फिर न सिर्फ चार आने के साथ बाहर आतीं बल्कि एक प्लेट में चार ताजा इडली और बीती रात का सांभर लेकर आतीं। सब्जी वाली अपने सारे 'दाग लगे 32 दांत' दिखाते हुए खुशी से उसे खाती। मेरी मां चेहरे पर मुस्कान लिए उसे देखते हुए सामने बैठ जातीं और टॉवेल से बाल भी सुखाती जातीं। मुझे हमेशा अचरज होता कि जब भी पैसे की बात आती यह एंजेल इस तरह व्यवहार क्यों करती हैं। मैंने जब एक बार उनसे कारण पूछा तो उन्होंने कहा, 'देखो, इसके तीन बच्चे हैं और पति शायद ही कुछ कमाता है। वे अच्छी तरह खाते हैं और इसके लिए कभी कुछ नहीं छोड़ते। मैं उसका भूखा चेहरा पढ़ सकती हूं (इसीलिए मैं उन्हें एंजेल कहता), इसलिए वह जब भी आती तो मैं उसे कुछ न कुछ खाने को देती हूं। उसे भी पता है कि यहां उसे खाने को कुछ मिलेगा। जब पैसे की बात आती है तो मुझे उस पैसे से किचन का प्रबंध चलाना पड़ता है, जो तुम्हारे पिताजी देते हैं। जब तक उन्हें अगला वेतन नहीं मिलता, मैं उनसे और पैसे नहीं मांग सकती।'
साभार: भास्कर समाचार
अापको कभी-कभी एक वॉट्सएप मैसेज मिलता होगा, जिसमें कहा होता है, 'कृपया सब्जीवाले से 2-5 रुपए के लिए बहस करके सितारा होटल में जाकर 100 रुपए की टीप न दें।' मुझे जब भी यह संदेश मिलता है तो यह
कहानी याद आती है। उन दिनों सब्जी वाली आती थी पर सिर्फ उन हरी सब्जियों के साथ, जो वे अपने क्षेत्र में उगा पाती थीं। मेथी और पालक का एक बंडल छह आना (36 पैसे) और चार आने (25 पैसे) के बीच आता था। किंतु मेरी मां ने कभी उन्हें छह आने में नहीं खरीदा होगा, वे हमेशा चार आने में खरीदतीं। हफ्ते में तीन बार होने वाली रस्म कुछ ऐसी होती। 'माई (वेंडर इसी तरह मेरी मां को संबोधित करते थे) सब्जियां बहुत महंगी हो गई हैं, कृपया भाव-ताव मत कीजिए, मैं सिर्फ आपके लिए ताज़ा पालक लाई हूं। चूंकि आपसे बोनी कर रही हूं तो छह आने के लिए बहस न करें।' वह मेरे जैसे तीन फीट के बालक की मदद से अपनी 'टोकनी' हमारे घर के बाहर नीचे उतारती और फिर बैठ जाती। वह तो मेरी यह बात भी नहीं सुनती कि अम्मा नहा रही हैं। वह मुझे कहती, 'पता है।' फिर वह कुछ ऐसे हाथ झटकती कि मैं आहत हो जाता व जिसका मैं मन में यह मतलब निकालता, 'तुम चुप रहो बच्चे, मुझे पता है।' वह भी टोकनी को नीचे उतारने में मेरी मदद लेने के बाद। मेरी मां नहाकर बाहर आतीं। गिले बाल एक छोर पर बंधे होते, माथे के बीचोबीच छोटी-सी कुमकुम की बिंदी होती, पल्लू से सावधानी के साथ चेहरा पोंछती हुई ताकि बिंदी फैले नहीं। वे ऐसी किसी एंजेल (देवदूत) की तरह उजली नज़र आतीं जैसे किसी को वरदान देने आई हो। लेकिन वे अचानक 'टोकनी-वाली' के लिए पूंजीवादी बन जातीं और भाव-ताव करने लगतीं, 'कोई नहीं, मैं आपको सिर्फ चार आने दूंगी।' वह महिला उठ खड़ी होती और 'टोकनी' उठाने के लिए मेरी मदद मांगती। मैं बड़ी खुशी से यह करता, इसलिए नहीं कि मुझे सब्जीवाली पर कोई दया आ रही होती बल्कि इसलिए कि उसके कारण मुझे कुछ देर के लिए पढ़ाई से छुट्टी मिल जाती। मैं जब उसे मदद कर भी रहा होता तो भाव-ताव चलता रहता। वह कहती, ''बोनी' का वक्त है इसलिए मैं पांच आने (30 पैसे) में दे रही हूं' और मेरी मां हिमालय की चट्टान की तरह कभी चार आने के भाव से टस से मस नहीं होतीं। आखिरकार एंजेल की विजय होती और मुझे फिर 'टोकनी' वाली क्रिया दोहराने का मौका मिलता।
एंजेल अपने लंबे बालों से अब भी टपकते पानी के साथ पालक रखने किचन में जातीं और फिर न सिर्फ चार आने के साथ बाहर आतीं बल्कि एक प्लेट में चार ताजा इडली और बीती रात का सांभर लेकर आतीं। सब्जी वाली अपने सारे 'दाग लगे 32 दांत' दिखाते हुए खुशी से उसे खाती। मेरी मां चेहरे पर मुस्कान लिए उसे देखते हुए सामने बैठ जातीं और टॉवेल से बाल भी सुखाती जातीं। मुझे हमेशा अचरज होता कि जब भी पैसे की बात आती यह एंजेल इस तरह व्यवहार क्यों करती हैं। मैंने जब एक बार उनसे कारण पूछा तो उन्होंने कहा, 'देखो, इसके तीन बच्चे हैं और पति शायद ही कुछ कमाता है। वे अच्छी तरह खाते हैं और इसके लिए कभी कुछ नहीं छोड़ते। मैं उसका भूखा चेहरा पढ़ सकती हूं (इसीलिए मैं उन्हें एंजेल कहता), इसलिए वह जब भी आती तो मैं उसे कुछ न कुछ खाने को देती हूं। उसे भी पता है कि यहां उसे खाने को कुछ मिलेगा। जब पैसे की बात आती है तो मुझे उस पैसे से किचन का प्रबंध चलाना पड़ता है, जो तुम्हारे पिताजी देते हैं। जब तक उन्हें अगला वेतन नहीं मिलता, मैं उनसे और पैसे नहीं मांग सकती।'