एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
हमारे ऊपर तो जैसे मातम छा गया लेकिन, जल्दी ही इस रस्म के बाद जो खाने-पीने की चीजें हमें मिलने वाली थी उसके लालच की बाढ़ में सारा मातम बह गया। चाल में ऐसी रस्म आमतौर पर होती रहती थी। हम अपनी जिम्मेदारियां समझते थे। किसी को आसपास की सफाई करनी थी। पानी डालकर गली की धूल साफ करनी थी ताकि भावी दूल्हे को लेकर जब कार वहां आए तो धूल न उड़े। धूल के कारण कोई छींके नहीं, क्योंकि उन दिनों इसे बहुत अपशकुन समझा जाता था और सारे घरों की श्रेष्ठतम चीजें गोपाल मामा के घर लाकर रखना। कोई हाथी-दांत के रंग का चमकदार टेबलक्लाथ देता तो कोई परदे। तश्तरियां हमेशा ही 'बड़ा मामा' के घर से आतीं, क्योंकि उनका एक बेटा टेलीफोन्स में जीएम था और उनके यहां विदेश से लाई बेस्ट क्रॉकरी थी। सबसे चिड़चिड़ी वेदा ऑन्टी, जो उनके चमेली के फूलों को हाथ लगाने के कारण हर किसी से झगड़ती रहतीं वे भी उस दिन बहुत उदार होकर गोपाल मामा के परिवार की सारी महिलाओं को हाथ से बना फूलों का 'गजरा' देतीं। गोपाल मामा के यूएमएस वॉल्व रेडियो (आज की तरह डिजिटल नहीं) की जगह नवीनतम फिलिप्स रेडियो ले लेता, क्योंकि 'बड़े मामा' जानते थे कि कॉलोनी में किसके पास लेटेस्ट रेडियो है!
मुझे पद्मा की एक और दो साल की दो छोटी बहनों को अपने घर ले जाना था, जो चाल से दो किलोमीटर दूर था और उनके साथ पूरा दिन बिताना था। यह उस तरह की मैरिज-फिक्सिंग प्रोसेस थी या इसे मैच (योग्य जोड़ी को मिलाना) फिक्सिंग प्रोसेस थी, जिसकी मुुझे आदत थी। चाल का नियम यह भी था कि विवाह योग्य (और अच्छी दिखने वाली, इसे साफ शब्दों में नहीं कहा जाता था) लड़की पद्मा के घर के आसपास भी नहीं दिखेगी। हम लड़के इस 'मैच फिक्सिंग' में एक्सपर्ट हो गए थे और उन 40 घरों के छोटे-मोटे काम करते ताकि उन कामों के लिए उन लड़कियों को बाहर न आना पड़े। हम कभी मेरा विश्वास मानिए कि उस मैच या मैरिज-फिक्सिंग की सक्सेस रेट शत-प्रतिशत थी और हमारी चाल में कोई लड़की कभी खारिज नहीं की गई और यह कम से कम उन दिनों कोई मैच जीतने जैसा ही था। मैं हमेशा सोचता हूं कि यह सब सामाजिक सद्व्यवहार कहां चला गया?
साभार: भास्कर समाचार
सत्तर पार के दशक में मैं नागपुर की संगम चाल स्थित नानाजी के घर सप्ताह के अंत में दिनभर चलने वाले क्रिकेट के धूमधड़ाके का हिस्सा हुआ करता था। सारी साइकिलें और कुछ स्कूटर हमारे खेल के लिए उस 400
मीटर लंबी और 100 मीटर चौड़ी गली से हटाकर एक कोने में कर दिए जाते थे। हमारा एक दोस्त तरुण घोष शानदार कमेंटेटर था, जो हमारे क्रिकेट मुकाबलों में जान फूंक देता था। बाद में वह विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के लिए ऑल इंडिया रेडियो का कमेंटेटर बना। किंतु उस दिन जब मैं तीन दिन की छुट्टी होने के कारण धमाकेदार क्रिकेट की बड़ी उम्मीद से वहां गया तो मुझे मेरे मामा ने बताया कि उस दिन क्रिकेट नहीं होगा। उन्हें पूरी चाल में 'बड़ा मामा' कहा जाता था, क्योंकि वे ही वहां के 40 घरों के लिए नियम तय करते थे। इस निराशाजनक घोषणा के तुरंत बाद उन्होंने अपनी आवाज धीमी करते हुए इशारे से दोस्ताना मुद्रा बनाई और निकट आकर कहा, 'आज मैं चाहता हूं कि तुम सब अच्छा व्यवहार करो, क्योंकि कोई हैदराबाद से गोपाल मामा के घर पद्मा को 'देखने' आ रहा है। मैं चाहता हूं कि पूरी चाल अच्छा व्यवहार करे ताकि यह संबंध अच्छी तरह हो जाए।' हमारे ऊपर तो जैसे मातम छा गया लेकिन, जल्दी ही इस रस्म के बाद जो खाने-पीने की चीजें हमें मिलने वाली थी उसके लालच की बाढ़ में सारा मातम बह गया। चाल में ऐसी रस्म आमतौर पर होती रहती थी। हम अपनी जिम्मेदारियां समझते थे। किसी को आसपास की सफाई करनी थी। पानी डालकर गली की धूल साफ करनी थी ताकि भावी दूल्हे को लेकर जब कार वहां आए तो धूल न उड़े। धूल के कारण कोई छींके नहीं, क्योंकि उन दिनों इसे बहुत अपशकुन समझा जाता था और सारे घरों की श्रेष्ठतम चीजें गोपाल मामा के घर लाकर रखना। कोई हाथी-दांत के रंग का चमकदार टेबलक्लाथ देता तो कोई परदे। तश्तरियां हमेशा ही 'बड़ा मामा' के घर से आतीं, क्योंकि उनका एक बेटा टेलीफोन्स में जीएम था और उनके यहां विदेश से लाई बेस्ट क्रॉकरी थी। सबसे चिड़चिड़ी वेदा ऑन्टी, जो उनके चमेली के फूलों को हाथ लगाने के कारण हर किसी से झगड़ती रहतीं वे भी उस दिन बहुत उदार होकर गोपाल मामा के परिवार की सारी महिलाओं को हाथ से बना फूलों का 'गजरा' देतीं। गोपाल मामा के यूएमएस वॉल्व रेडियो (आज की तरह डिजिटल नहीं) की जगह नवीनतम फिलिप्स रेडियो ले लेता, क्योंकि 'बड़े मामा' जानते थे कि कॉलोनी में किसके पास लेटेस्ट रेडियो है!
मुझे पद्मा की एक और दो साल की दो छोटी बहनों को अपने घर ले जाना था, जो चाल से दो किलोमीटर दूर था और उनके साथ पूरा दिन बिताना था। यह उस तरह की मैरिज-फिक्सिंग प्रोसेस थी या इसे मैच (योग्य जोड़ी को मिलाना) फिक्सिंग प्रोसेस थी, जिसकी मुुझे आदत थी। चाल का नियम यह भी था कि विवाह योग्य (और अच्छी दिखने वाली, इसे साफ शब्दों में नहीं कहा जाता था) लड़की पद्मा के घर के आसपास भी नहीं दिखेगी। हम लड़के इस 'मैच फिक्सिंग' में एक्सपर्ट हो गए थे और उन 40 घरों के छोटे-मोटे काम करते ताकि उन कामों के लिए उन लड़कियों को बाहर न आना पड़े। हम कभी मेरा विश्वास मानिए कि उस मैच या मैरिज-फिक्सिंग की सक्सेस रेट शत-प्रतिशत थी और हमारी चाल में कोई लड़की कभी खारिज नहीं की गई और यह कम से कम उन दिनों कोई मैच जीतने जैसा ही था। मैं हमेशा सोचता हूं कि यह सब सामाजिक सद्व्यवहार कहां चला गया?