Tuesday, February 16, 2016

जेएनयू प्रकरण पर: बौद्धिक बेईमानी का तमाशा

अपने देश में बुद्धिजीवियों को परिभाषित किया जाना इसलिए थोड़ा कठिन है, क्योंकि कोई भी खुद को बुद्धिजीवी करार दे सकता है। भारत में आमतौर पर हर वह शख्स बुद्धिजीवी है जो साहित्यकार, लेखक, पत्रकार, कलाकार के तौर पर जाना जाता है। कई नेता भी बुद्धिजीवी के तौर पर जाने जाते हैं और नौकरशाह
भी। संगोष्ठी-सेमिनार में बोलने वाले और प्रोफेसर तो अनिवार्य रूप से बुद्घिजीवी कहलाते हैं। इनमें से कई प्रख्यात बुद्धिजीवी कहलाने लगते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि वे तर्कसंगत-न्यायसंगत लेखन-वाचन-चिंतन भी करते हों। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इसकी एक बानगी तब मिली जब जेएनयू मसले पर मुकुल केसवन ने एक अंग्रेजी दैनिक में लिखा-‘राजनाथ सिंह को पता होना चाहिए कि कन्हैया कृष्ण का ही दूसरा नाम है।’ वह इतने तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने कृष्ण के बालजीवन का उल्लेख करते हुए कन्हैया कुमार की मां मीना देवी को यशोदा भी करार दिया। निपट मूर्खता और बौद्धिक बेईमानी की यह इकलौती मिसाल नहीं है। न जाने कितने कथित बुद्धिजीवी जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वालों को महज राजनीतिक असहमति प्रकट करने वाला बताने पर आमादा हैं। इसके लिए वे देश विरोधी नारों का जिक्र करने से तो कन्नी काट ही रहे हैं, उन पोस्टरों की भी अनदेखी कर रहे हैं जो अफजल गुरु के समर्थन में जेएनयू में चस्पा किए गए थे। इन पोस्टरों में अफजल गुरु को शहीद बताने के साथ ही उसके अधूरे अरमानों को पूरा करने का संकल्प व्यक्त किया गया था। जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष ने देश विरोधी नारे लगाए या नहीं, यह जांच का विषय है। इसी तरह यह भी बहस का विषय है कि क्या ऐसे नारे लगाने वालों पर देशद्रोह का ही मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए? यह बहस सही दिशा में तभी आगे बढ़ सकती है जब बौद्धिक बेईमानी का परित्याग किया जाए।
भारत की बर्बादी तक, कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी-जंग रहेगी, भारत तेरे टुकड़े होंगे-इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह, अफजल हम शर्मिदा हैं-तेरे कातिल जिंदा हैं..ये वे नारे हैं जो 9 फरवरी को जेएनयू परिसर में लगाए गए। इस नारेबाजी पर दिल्ली पुलिस की कार्रवाई का विरोध करने वाले भूले से भी इन नारों का जिक्र नहीं कर रहे हैं। उलटे बड़े भोलेपन से पूछ रहे हैं कि मोदी सरकार राजनीतिक असहमति के प्रति इतनी आक्रामक क्यों है? अगर भारत की बर्बादी के नारे लगाना केवल राजनीतिक असहमति भर है तो फिर हाफिज सईद की भारत विरोधी रैलियों पर आपत्ति का भी कोई मतलब नहीं रह जाता। कथित बुद्धिजीवियों के शातिर तबके ने उन वीडियो पर तो कोई ध्यान नहीं दिया जिनमें अफजल गुरु के पोस्टरों के साथ देश विरोधी नारे लगाए जाते देखा-सुना जा सकता है, लेकिन संदिग्ध किस्म के उस वीडियो का संज्ञान अवश्य लिया जिसमें कथित तौर पर विद्यार्थी परिषद के छात्र ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ कहते हैं। इसका संज्ञान कई पत्रकारों, कलाकारों ने भी लिया। बौद्धिक बेईमानी की ऐसी ही मिसाल हाफिज सईद के ट्वीट को लेकर पेश की गई।
किसी को नहीं पता कि हाफिज का कोई ट्विटर अकाउंट है या नहीं और अगर है तो किस नाम से, लेकिन जैसे ही राजनाथ सिंह ने यह कहा कि जेएनयू में जो कुछ हुआ उसके पीछे लश्कर सरगना का हाथ है, तमाम लोग इस नतीजे पर पहुंच गए कि गृहमंत्री हाफिज के फर्जी ट्विटर अकाउंट को असली समझ बैठे। और जब हाफिज सईद का वीडियो आया तो वही लोग उसे प्रामाणिक ठहराने लगे जो इशरत जहां मामले में डेविड हेडली को झूठा बताने लगे थे। पता नहीं सच क्या है, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि जेएनयू में वही नारे लगे जो हाफिज सईद की रैलियों में लगते रहते हैं। जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वालों का बचाव यह कहकर भी किया गया कि सरकार को फ्रिंज एलिमेंट यानी मुख्यधारा से अलग तत्वों की परवाह नहीं करनी चाहिए। गौर करें यह तर्क वही दे रहे हैं जो अनाम-गुमनाम से हिंदू संगठनों की हरकतों पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। वे इन संगठनों की पीठ पर मोदी का हाथ भी देख रहे होते हैं। अगर जेएनयू में ‘फिं्रज एलिमेंट’ के रूप में कुछ छात्र समूहों को देश विरोधी गतिविधियों की इजाजत मिलनी चाहिए तो फिर ऐसी ही इजाजत अन्य विश्वविद्यालयों-कॉलेजों में क्यों नहीं मिलनी चाहिए? 
यह पहली बार नहीं है जब बिना शर्म-संकोच बौद्धिक बेईमानी का परिचय दिया जा रहा हो। ध्यान दें कि जो दादरी की घटना पर उबल पड़े थे और उचित ही उबल पड़े थे वे मूदबिदरी की घटना पर मौन रहे। वे मालदा पर भी बोलने में शरमा गए थे। मालदा की घटना पर तो मीडिया के एक हिस्से को भी सांप सा सूंघ गया था। जो कमलेश तिवारी के मूर्खता भरे बयान पर आग बबूला हो गए थे वे उसके सिर इनाम रखने वाले मौलानाओं के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोल सके। जो साक्षी-साध्वी के बेतुके बयानों पर तैश में आ जाते है वे आजम-ओवैसी-दिग्विजय के ऐसे ही बयानों पर गुमसुम हो जाते हैं। अगर गोडसे का महिमामंडन शर्मनाक है तो अफजल का गुणगान ऐसा ही क्यों नहीं है? जो लोग गुलाम अली का मुंबई में कार्यक्रम न होने पर जार-जार रोते हैं वे एआर रहमान के खिलाफ फतवे पर मुंह खोलने में क्यों घबराते हैं? यदि जेएनयू में अफजल के पोस्टर लहराना ‘बच्चों’ की ‘नादानी’ है तो राहुल को काले झंडे दिखाना फासीवाद कैसे है? 
जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वालों के बचाव में एक कुतर्क यह भी पेश किया जा रहा है कि वहां इस तरह का काम पहले भी होता रहा है। जैसे 2010 में छत्तीसगढ़ में 76 सीआरपीएफ जवानों की हत्या पर खुशी जताई जा चुकी है। एक अन्य कुतर्क यह है कि कश्मीर घाटी में भी तो अफजल के समर्थन में नारे लगते हैं। क्या यह कहने की कोशिश हो रही है कि अगर ऐसे ही नारे देश में भी लगें तो भी हर्ज नहीं? जेएनयू में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पक्षधरता वे तमाम लोग भी कर रहे हैं जिन्होंने इससे अनजान रहना ही बेहतर समझा कि हाल में ही रामदेव को वहां बोलने की इजाजत नहीं दी गई। राजनीति का स्तर गिरता चला जाए तो वह जनदबाव में सुधर सकता है, लेकिन इसमें संदेह है कि बौद्धिक विचार-विमर्श के गिरते स्तर को सुधारने का कोई उपाय है।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
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साभारजागरण समाचार 
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