राज किशोर (लेखक वरिष्ठ पत्रकार, कथाकार और सामाजिक चिंतक हैं)
हरियाणा और उसके आसपास का बड़ा इलाका जाट समुदाय की आरक्षण की मांग की आग में झुलस गया। इन मांगों का कभी अंत भी नहीं होगा। समानता और सामाजिक उत्थान के लिए आरक्षण की मांगों के पक्ष में कुछ भी तर्क दिए जाएं, लेकिन मुट्ठी भर लोगों का ही भला करने वाले इस तरीके से न तो समानता आने वाली
है और न ही समाज में जातियों का जहर मिटने वाला है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। समानता और असमानता की सबसे ठोस परिभाषा इतिहास में अब तक वर्ग संघर्ष के रूप में सामने आई है। वर्ग का काम है सभी जातियों-उपजातियों को अपने में समाहित कर लेना और एक ऐसी आर्थिक श्रेणी का निर्माण करना जिसके सभी सदस्यों का हित समान हो। दुर्भाग्य से यह एक सिद्धांत ही रहा है, कहीं भी यथार्थ में इसकी परिणति नहीं हो पाई है। किसी भी समाज में इतने स्तर होते हैं कि उनके बीच समानता संभव नहीं हो पाती और इसलिए एकता भी स्वप्न बनी रहती है। जहां-जहां कम्युनिस्ट क्रांति हुई, किसानों और मजदूरों के बीच खाई बढ़ी, जिसकी कीमत सिर्फ किसानों को अदा करनी पड़ी। भारत में अनेक सिद्धांतकार दलितों और ओबीसी के बीच प्रगतिशील गठबंधन की खोज करते रहे हैं, जो सिर्फ इसलिए संभव नहीं हो पाया है कि दोनों समाज अर्थिकता के दो पैमानों पर स्थित हैं, बल्कि इसलिए भी कि एक ने दूसरे का शोषण और अपमान करना अभी तक छोड़ा नहीं है। सभी ओर से निराश होने के बाद ही दलित अलगाववाद की ओर बढ़ा है तथा जाति खत्म करने में उसकी दिलचस्पी नहीं रह गई है। अब वह अपने दलितत्व में ही भविष्य खोज रहा है।
काश, जाति किसी भी समूह को तो जोड़ती। कम से कम ब्राह्मण ही, जो अनंत काल से अपने को तत्वचेता मानते रहे हैं, अपने को एक एकीकृत समाज के रूप में गठित कर पाते। एक सोपान पर बैठा हुआ ब्राह्मण दूसरे सोपान पर बैठे हुए ब्राह्मण के घर भोजन भले कर ले, पर शादी-ब्याह करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। असमानता या विषमता कई फनों वाला सांप होती है। उसकी दुम में भी विष होता है। यह अकारण नहीं है कि उच्च वर्णो की देखा-देखी पिछड़ी और निम्न जातियां भी विभिन्न जातियों-उपजातियों में विभाजित हैं, जिसका असर आरक्षण जैसी कल्याणकारी योजना पर पड़ा है, जिसकी परिकल्पना जातियों के एकीकरण के आधार पर की गई थी। जहां दलितों को दलित और महादलित की कोटियों में बांटा गया है, वहां आरक्षण ज्यादा कारगर साबित हुआ है। यह एक तरह से जाति में आर्थिक आधार को प्रविष्ट कराने का यथार्थवादी नजरिया है। कुछ राज्यों में उच्च वर्ग के गरीब सदस्यों को आरक्षण देने की पेशकश की जा रही है। दिलचस्प है कि इसमें मायावती सबसे अग्रणी हैं, क्योंकि वह जानती हैं कि सत्ता पाने के लिए दलित एकता काफी नहीं है। जाति को आर्थिक सफलता या विफलता से अलग नहीं रखा जा सकता। और यही तत्व जाति के विनाश का सबसे मजबूत आधार हो सकता है। बल्कि मैं तो कहूंगा कि एकमात्र आधार, क्योंकि लक्ष्मी सभी भेदों-उपभेदों को धो देती हैं।
जाति प्रथा को समाप्त करने और सामाजिक समानता लाने के लिए डॉ, अंबेडकर ने भी अंतर-जातीय विवाह की वकालत की थी। लेकिन भौतिक समस्याओं का भावुक समाधान नहीं हुआ करते। कोई जाति तोड़ने के लिए विवाह नहीं करता, बल्कि विवाह करने के लिए जाति तोड़ता है। जाति के साथ अकसर रंग, रूप, संपन्नता, नौकरी, व्यापार और कुछ हद तक स्वभाव जुड़े होते हैं। या कहना चाहिए कि सदियों की एकरसता के परिणामस्वरूप ऐसा हुआ है। महात्मा गांधी बहुत दिनों तक मानते रहे कि जाति प्रथा के सात्विक रूप में कोई बुराई नहीं है यदि इसे श्रम विभाजन माना जाए और सभी जातियों का समान रूप से सम्मान किया जाए। अपनी इस मान्यता की विफलता उन्होंने अपने जीवन काल में ही देख ली थी। एक प्रस्ताव राममनोहर लोहिया का था, जो जाति को वर्ग का जमा हुआ रूप मानते थे। उनके अनुसार निम्न माने जाने वाले कामों का पारिश्रमिक हजार गुना बढ़ा दिया जाए तो जाति प्रथा को विनाशकारी आघात लग सकता है। आज उच्च जातियों के ऐसे हजारों सदस्य हैं जो सफाई कर्मचारी के रूप में काम कर रहे हैं।
क्या इस विश्लेषण से जाति के खात्मे का कोई तरीका निकल सकता है? आश्चर्य की बात है कि पूंजी और उपभोग की प्रधानता के इस युग में पिछले पंद्रह वर्षो में सबसे ज्यादा शोर सामाजिक न्याय का रहा है। आज भी सामाजिक न्याय को भारतीय समाज का उच्चतम आदर्श माना जाता है। यह एक ऐसा मिथक है जिसने आर्थिक तथा अन्य प्रकार के न्यायों को अपने घटाटोप से ढक रखा है। स्मरणीय है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में आर्थिक न्याय को सामाजिक न्याय के तत्काल बाद स्थान दिया गया है। सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय जुदा नहीं हैं, क्योंकि समाज का एक बड़ा आधार उसकी आर्थिकी है। इस बात पर जोर न देने के कारण ही जाति की अमरता में विश्वास बढ़ रहा है। उम्मीद थी कि शहरीकरण बढ़ने से जाति प्रथा कमजोर पड़ेगी। नेहरू जैसे बुद्धिजीवियों के सोचने की दिशा यही थी। उनकी निगाह में शायद पश्चिम के शहर थे जहां सामाजिक स्तरीकरण के इतने सोपान न थे और प्रत्येक व्यक्ति स्वाभिमान के साथ जी सकता था। लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में शहरीकरण सामान्य जनजीवन की विषमता को कम नहीं करता, बल्कि बढ़ाता है। आज भारत के गांवों और कस्बों की अपेक्षा यहां के शहरों में आर्थिक विषमता बहुत है और साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। हमारे बुद्धिजीवी शहरों में रहते हैं और यह मूलभूत कारण है कि वे आर्थिक समानता की कल्पना ही नहीं कर सकते। उनकी नजर सामाजिक न्याय तक जाकर रुक जाती है, जिसमें जाति भी बनी रहती है और असमानता भी।
जाति के खात्मे का आर्थिक विकास से गहरा संबंध है। असमान विकास जाति की जड़ों को मजबूत करता है, क्योंकि वह नए-नए सामाजिक सोपान पैदा करता है। लोकतंत्र, स्त्री-पुरुष समानता, मानव अधिकार, स्वतंत्रता आदि की तरह समानता भी एक असंभव स्वप्न है, जिसकी ओर जाने की कोशिश कर सकते हैं, पर जिसे हासिल नहीं कर सकते। इसकी हैसियत सत्य की तरह है जो युग-युगों से मनुष्य को आकर्षित करता रहता है, पर हाथ में किसी के नहीं आता। स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र उतने अमूर्त नहीं हैं, क्योंकि हम इन्हें अपने जीवन में प्रतिक्षण अनुभव करते हैं और पहचानते हैं। इन्हें पूर्ण रूप से हासिल करना असंभव भले ही हो, पर इनका एक संभव रूप हमेशा बना रहता है। जो समाज अपने भीतर से जाति के जहर को मिटाना चाहता है उसे जाति पर नहीं, तीव्र आर्थिक विकास और उस विकास में सबकी संभवतम हिस्सेदारी के बारे में सोचना चाहिए। जाति को समानता की राह का रोड़ा मानकर उसे हटाना भावुकता ही नहीं, नादानी भी है। कोई सचमुच इस बारे में सोच-विचार करना चाहता है तो उसे उन परिस्थितियों पर अपनी नजर केंद्रित करनी चाहिए जो जाति को पैदा करती हैं और उसे बनाए रखती हैं।
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साभार: जागरण समाचार
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