हर बार जब भी मुझे किसी एयरपोर्ट से कोई फ्लाइट लेनी होती है, अगर बोर्डिंग टाइम से 20 मिनट पहले भी मैं पहुंच जाता हूं तो एक चीज तलाशने निकल पड़ता हूं। यह टॉयलेट, बुक स्टॉल या फैशन स्टोर्स नहीं होते। मैं एक टीम की तलाश में निकलता हूं, जिसका जूनियर सदस्य सबसे अलग होता है और सबसे महत्वपूर्ण भी।
वह हमेशा मेरे लिए खास होता है। उसकी टीम दूर अलग खड़े रहकर स्थिति और लोगों पर पैनी नजर रखती है और इसलिए वे अलग ही दिखाई दे जाते हैं। कोई भी उनके नजदीक जाने की हिम्मत नहीं करता। और मैं उन्हें ढ़ूंढ़ लेने में कभी नाकाम नहीं रहता। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। वे सभी ट्रांसपोर्ट टर्मिनल्स पर आम होते हैं और कम से कम एयरपोर्ट और अधिकांश रेलवे स्टेशनों पर 24 घंटे, सातों दिन तैनात रहते हैं। हमारा यह जूनियर साथी कुछ बोलता नहीं है, लेकिन उसकी आंखें हमेशा चौकस और पूरी तरह खुली होती हैं और जैसे ही उसे कुछ संदिग्ध नजर आता है वह इसके बारे में एक भी शब्द कहे बिना सिर्फ आंखों के इशारे से अपने बॉस को बताता है। उसकी यह मूक बातचीत मुझे सबसे जोरदार सुनाई देती है। उसकी आंखों की चमक, माथे को जिस तरह वह सिकोड़ता है और जिस तरीके से उसके चेहरे के रंग बदलते हैं, इसे देखकर कोई भी बता सकता है कि कोई समस्या जरूर है। और फिर वह और उसका बॉस संदिग्ध व्यक्ति और उसके सामान को एक ओर ले जाते हैं। यह टीम कभी भी इस मामले में गलती नहीं करती। इशारे में कही गई उसकी बात में हमेशा कोई कोई तथ्य होता है।
मैं आखिर उसे तलाश ही लेता हूं। ऐसी ही एक मुलाकात में मुझे पता चला कि टीम का छोटा सदस्य सिर्फ एक साल की उम्र में प्रोस्थेटिक हाईपरप्लेसिया से पीड़ित था। इस स्थिति में अंगों की कोशिकाओं में असामान्य वृद्धि होती है। डॉक्टर और टीम के सदस्यों का मानना था कि वह बचेगा नहीं, लेकिन बैंगलोर कैनाइन स्क्वाड के कॉन्सटेबल थीमारायप्पा अलग ढंग से सोचते थे। थीमारायप्पा उसके साथ सख्ती से रात-दिन डटे रहे। जिस तरह उस पुलिस कॉन्सटेबल ने चार पैरों वाले अपने डॉबरमैन दोस्त लालू की देखभाल की वह एक मिसाल है। उनका प्रेम और देखभाल आसानी से दिल जीतने वाली बेस्टसेलर कहानी बन सकती है। लालू कुछ ही महीनों में ठीक हो गया, बल्कि उसने पिछले साल ऑल इंडिया पुलिस ड्यूटी मीट में एलिट कैनाइन यूनिट्स से मुकाबला करते हुए सिल्वर मेडल भी जीता।
लालू जैसे डॉग सिर्फ कई लॉ एनफोर्समेंट टुकड़ियों की औपचारिक परेडों में शामिल होते हैं, बल्कि वे आकस्मिक स्थितियों में भी काम करते हैं। आप सभी ने चीकू को तो देखा ही होगा, जो सभी को प्रिय है और ऑस्कर तथा सीजर भी कम नहीं हैं। ये इस साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस की परेड में इंडियन आर्मी के डॉग स्क्वाड में परेड कर चुके हैं। आज सभी सुरक्षा एजेंसियों के लिए चिंता का विषय डॉग्स नहीं बल्कि उनके ट्रेनर हैं। जो आजकल दुर्लभ होते जा रहे हैं। ट्रेनर्स अपनी-अपनी डिवीजंस में नियुक्त होते हैं, लेकिन जब डॉग स्क्वाड में नियुक्ति की बात आती है तो वहां करीब एक दशक तक रहना होता है, जो डॉग की जिंदगी और उसकी वर्क लाइफ पर निर्भर करता है। नए लोगों को डॉग स्क्वाड में नियुक्त होने के लिए प्रेरित करना कई एजेंसियों के लिए मुश्किल काम होता है। ट्रेनर्स को सुबह बहुत जल्दी शुरुआत करनी होती है और डॉग स्क्वाड को कभी भी बुलाया जा सकता है। डॉग क्या बताने की कोशिश कर रहा है वह समझना और खोजी कुत्तों के साथ लंबी दूरी तक दौड़ना ट्रेनर्स के लिए आसान नहीं होता। इस यूनिट से ट्रांसफर होना भी मुश्किल होता है, क्योंकि ट्रेनर और डॉग को एक टीम की तरह देखा जाता है। डॉग की ट्रेनिंग जब वह पप होता है तभी से शुरू हो जाती है और उसे ट्रेनर के साथ रखा जाता है। जहां डॉग्स की नियुक्ति होती है, वहीं ट्रेनर्स को भी क्वार्टर दिए जाते हैं। दोनों साथ-साथ रहते एक-दूसरे को अच्छी तरह समझने लगते हैं, यही कामयाबी की कुंजी है।
फंडायह है कि प्रेमऔर देखभाल कुछ जॉब्स के लिए जरूरी फैक्टर है, जैसा कि इस काम में है।
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साभार: भास्कर समाचार
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