एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
जब पूरा देश परदे पर नीरजा की बहादुरी देख रहा था, मैं पूरी फिल्म में यह भी देख रहा था कि फिल्म निर्माता ने नीरजा के पालूत पॉमेरेनियन 'टिप्सी' के चरित्र को किस तरह उभारा है। और मुझे दुख हुआ कि परदे पर उभरी जिंदगी में भी टिप्सी नीरजा को उनके अंतिम समय में देख नहीं पाया, क्योंकि जब नीरजा के ताबूत को
उनके पैतृक घर में लाया गया तो टिप्सी को घर के अंदर बंद कर दिया था ताकि वह उनका पार्थिव शरीर देख पाए। टिप्सी में दृढ़-निश्चिय उतना ही था, जितना उसकी मालकिन नीरजा में था। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। नीरजा अपने पिता का 'बहादुर बच्चा' बनने के लिए तैयार थीं और उड़ान के यात्रियों की जान बचाने के लिए उन्होंने अपनी जान न्योछावर कर दी। और टिप्सी ने भी निश्चय कर लिया था कि वह यथाशीघ्र नीरजा से मुलाकात करेगा। अपनी मालकिन के जाने के सालभर के भीतर टिप्सी भी गुजर गया। पार्थिव शरीर आने तक तीन दिन उसने कुछ नहीं खाया। टिप्सी के जाने के बाद भनोत परिवार ने किसी प्राणी को पालतू नहीं बनाया। मैं जानता था कि परदे पर दिखाई जाने वाली इस बहादुर लड़की की कहानी फिल्म के अनुसार बनाने के लिए रूपांतरित की गई होगी, लेकिन इसके बावजूद मैं परदे की और असली जिंदगी की तुलना करने से खुद को नहीं रोक पाया। एक दृश्य में बताया गया कि नीरजा के पिता को उनकी सोसायटी की एक पार्टी में गाने का मौका दिया गया। वास्तव में मैंने कभी हरीश भनोत को गाते नहीं देखा था, जबकि उनकी पत्नी रमा भनोत जरूर शास्त्रीय गायिका रही हैं, जो ऑल इंंडिया रेडियो के शिमला केंद्र पर प्रस्तुति देती थीं। हरीश उन दिनों एक अंग्रेेजी अखबार के ब्यूरो चीफ थे और उन्हें अपने दफ्तर में हवाई जहाज का अपहरण होने की सूचना नहीं मिली थी, जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है। उन्हें तो ताज महल होटल के रीगल रूम में यह खबर मिली थी, जहां वे रायटर्स के भारत स्थित संवाददाता देव वरम की प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए गए थे।
चूंकि उन दिनों इंटरनेशनल कॉल लगाना बहुत मुश्किल होता था, हिंदुस्तान लीवर के जनसंपर्क अधिकारी इरफान खान ने हरीश और हम कुछ लोगों को अपने दफ्तर में आमंत्रित किया, जो दूरसंचार सुविधाओं से अच्छी तरह लैस था। उन्होंने हमें जरूरी कॉल लगाकर यह पता लगाने की सुविधा दी कि अपहरण के मोर्चे पर कराची में क्या हो चल रहा है। इन सुविधाओं के इस्तेमाल से घबराहट के उन पलों में काफी मदद मिली। ऐसे मौके होते थे, जब नीरजा अपनी फीएट कार (उनके चंडीगढ़ स्थित पुश्तैनी घर में इसे अब भी गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है) चलाते हुई पिता से मिलने बांद्रा स्टेशन पर आती थीं। साथ में टिप्सी भी होता था। पिता हमारे साथ चर्चगेट से लोकल में हमारे साथ सफर करते थे। नीरजा हमेशा कंधे तक बाल रखती थीं, जो नीचे की ओर घंुघराले थे, जबकि फिल्म में सीधे बाल दिखाए गए हैं। फिल्म में बताया गया था कि उनकी शादी जल्दी हो गई थी, जो कुछ माह से ज्यादा नहीं चली। पति के साथ हुई अप्रिय झड़प भी दिखाई गई, जो किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति को स्वीकार नहीं हो सकती थी। वे घर लौट आईं, पेन एम जॉब के लिए 10 हजार आवेदकों में से उनका चयन हुआ और उन्हें ट्रेनिंग पीरियड में ही प्रमोशन मिल गया। स्वाभिमान के साथ उनमें अपने पैरों पर खड़े रहने का हिम्मत और हौंसला भी बखूबी था। यह उन्होंने करके दिखा दिया। फिल्म में इस बात पर थोड़ा और जोर दिया जाना चाहिए था कि इस फौलादी नसों वाली युवती ने पति से मिली यह चुनौती, 'तुम हो क्या' कैसे स्वीकार की और कैसे सिद्ध किया कि 'वह क्या थी।' कुछ और दृश्य इस अाशय के जोड़े जाने चाहिए थे। जिस व्यक्ति ने 80 के दशक में असली नीरजा को देखा है, 30 वर्ष से ज्यादा समय बाद परदे की नीरजा को देखना वाकई एक भावुक क्षण है। वे मुझसे सिर्फ तीन वर्ष छोटी थीं, लेकिन उस युवती ने उस जमाने में मेरे जैसे कई लोगों को सबक सिखाया कि ड्यूटी क्या होती है, जिदंगी क्या है और कैसे 'बड़ी जिंदगी' जीना चाहिए और भी कई बातें। किंतु मुझे हमेशा ही यह सोचकर बुरा लगता है कि वे एक और अध्याय भी लिख सकती थी, 'कैसे लंबी जिंदगी जीएं।'
फंडा यह है कि हमारीदुनिया के कई हीरोहमें बड़ी जिंदगी जीना सिखा चुके हैं, लेकिन लंबी जिंदगी जीना भी सीखें, क्योंकि जज्बे से भरी लंबी जिंदगी के उदाहरणों का इस दुनिया में काफी अभाव है।
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साभार: भास्कर समाचार
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