Monday, February 8, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: कौन कहता है, कलयुग को हम स्वर्ण युग नहीं बना सकते

एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
मेरे बचपन में मुझे बहुत से प्रवचन तथा सोने के पहले कहानियां सुनने का मौका मिला, क्योंकि तब आज की तरह 24 घंटे का मनोरंजन उपलब्ध नहीं था और हमारे घर में रेडियो का प्रवेश तो बहुत बाद में हुआ। मैं भारतीय यूरोपीय इतिहास के योद्धाओं के बारे में कहानियां सुनता, जिनमें रामायण महाभारत के महान भारतीय भी होते। एक कहानी मुझे स्पष्ट रूप से याद है और मेरे हिसाब से यह महाभारत के अद्वितीय पात्र कर्ण के बारे में सबसे अच्छी कहानी है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। कहानी कुछ यूं है कि वे नहाने के पहले हीरे-जवाहरात जड़े पात्र में से अपने सिर पर तेल लगा रहे थे। दाएं हाथ में तेल लेकर उन्होंने इसे अपने बालों में अच्छी तरह लगाया। तभी वहां भगवान कृष्ण गए अौर कर्ण उनकी सेवा करने के लिए उठ खड़े हुए। वे उनसे वही पात्र उपहार के रूप में मांगने आए थे! कर्ण ने कहा, 'मुझे आश्चर्य है कि आप ब्रह्माण्ड के मालिक हैं और आपको इस तुच्छ वस्तु की इच्छा उत्पन्न हुई! लेकिन आपसे प्रश्न पूछने वाला मैं कौन होता हूं? ये लीजिए पात्र।' यह कहकर उन्होंने अपने बांए हाथ से भगवान के दाएं हाथ में पात्र रख दिया। 
उपहार बांए हाथ देने के कारण धर्म के मामले में हुई गलती के लिए उन्होंने फटकारा, लेकिन कर्ण ने कहा, 'मेरे भगवन! मेेरे दांए हाथ में बहुत-सा तेल लगा था। फिर मुझे यह भी भय था कि बांए से दांए हाथ में लेने तक मेरा भटकता मन, जो अभी उपहार देने के लिए राजी हुआ है, आपके अनुरोध को स्वीकारने के लिए कोई दलील खोज ले। फिर मैं इस कमजोर मन के बोझ तले उपहार देने के सौभाग्य से वंचित हो जाऊं। यही वजह है कि मैंने उचित विधि के टूटने की परवाह कर जल्दी से पात्र आपको दे दिया। कृपया मेरे प्रति सहानुभूति दिखाकर मुझे क्षमा करे।' कर्ण ने इस प्रकार अनुरोध कर अपना पक्ष रखा, क्योंकि वे मानव मन की अस्थिरता से अच्छी तरह वाकिफ थे। 
किंतु महाभारत में किसी जगह श्रीकृष्ण अर्जुन को सलाह देते हैं कि अनुशासन और अलिप्त रहकर मन पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है। मुझे वाकई यह नहीं मालूम कि अर्जुन के अलावा द्वापर युग में किसी ने अपने मन को नियंत्रित किया या नहीं, लेकिन कलयुग में मैं जरूर ऐसे व्यक्ति को जानता हूं, जिसने यह काम किया। 17 नवंबर 2015 को मुंबई के उपनगर घाटकोपर की कामा लेने के रहवासी हंसराज खत्री (67) और हीरामती खत्री (62) एक ऑटोरिक्शा में सवार हुए और ऑटो ड्राइवर अरुण शिंदे (50) को उन्हें घाटकोपर स्टेशन छोडने को कहा। 
चूंकि उनके हाथों में कोई बैग या नकदी नहीं थी, इसलिए उन्होंने शिंदे को किराया चुकाया और स्टेशन चले गए, टिकट खरीदा और प्लेटफॉर्म पर पहुंच गए। रिक्शा में फिर झांककर सामान चेक करने की जरूरत ही नहीं थी। वहां जाकर हीरामती की देहबोली पूरी तरह बदल गई। वे अपने ब्लाउज, साड़ी के पल्लू में बेचैनी से कुछ खोजने लगीं। वे बहुत घबराई हुई लग रही थीं। हंसराज ने पूछा कि मामला क्या है। हीरामती की आंखों में आंसू आ गए, कहने लगी कि खास इस मौके के लिए पहना एक लाख रुपए का गले का हार गायब है। वे दोनों बदहवास होकर जहां-जहां वे गए थे, उन सब जगहों पर दौड़-दौड़कर तलाशी लेने लगे। जब कहीं भी हार नहीं मिला तो वे ऑटो स्टैंड पर गए ताकि उस रिक्शा ड्राइवर से पूछ सके, लेकिन वह तो वहां से चला गया था। 
हर दिन वे अपना हार खोजते फिरते। दिन गुजरने के साथ वे भाग्य को दोष देने लगे। वे उम्मीद खो बैठे और मान लिया कि वे अपना कीमती हार हमेशा के लिए खो बैठे हैं। इस बीच, जब भी मुमकिन होता शिंदे उस जगह पर जाते जहां से उन्होंने दोनों को अपने रिक्शे में बिठाया था, लेकिन उनकी बदकिस्मती कहिए या और कुछ, वे कभी उन दोनों से नहीं टकराए। किंतु इस वर्ष 17 जनवरी को उन्होंने हीरामती को उसी जगह के पास बाजार में खरीददारी करते देखा। महिला उन्हें नहीं पहचान पाई। उन्होंने उस दिन का वाकया याद दिलाया और उन्हें अपने घर ले गए और हार सौंप दिया। कोई उपहार लेने से इनकार करते हुए शिंदेे ने सिर्फ उस बुजुर्ग दंपती से आशीर्वाद मांगा। दो महीने के लंबे अंतराल में भी उनका मन नहीं बदला अौर उन्हें विश्वास था कि वे दोनों को खोज निकालेंगे। 
फंडा यह है कि 'युग' तो हमारे जैसे लोग ही बनाते हैं। अौर शिंदे जैसे लोग उस कलयुग को भी विश्वनीयता प्रदान कर देते हैं, जिसे विद्वान काफी नकारात्मकता के साथ देखते हैं। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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