मैनेजमेंट फंडा (एन रघुरामन)
स्टोरी 1: मैसूरके जगनमोहन पैलेस की जयचमाराजेंद्र आर्ट गैलरी। गैलरी के उत्तरी हिस्से में स्थित कमरे की मद्धिम रोशनी में एकांत जगह में एक पेंटिंग रखी है। यह किसी साधारण, घरेलू लड़की की पेंटिंग नज़र आती है, लेकिन एक बार देखने के बाद आपकी यादों से कभी दूर नहीं होगी। इसकी खूबसूरती इतनी प्रभावित करती है। वाटरकलर इस बेहतरीन पेंटिंग में साड़ी पहने भारतीय महिला हाथ में लैंप लिए खड़ी है। इसकी साधारणता, इसमें उपयोग किए गए हल्के रंग और उंगलियों से टकराकर निकलती रोशनी की किरणों के चलते इसे उच्च श्रेणी की कलाकृतियों में गिना जाता है और पूरी दुनिया में मशहूर है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। कम से कम 70 साल पहले दीपावली के दिन एसएल हलदंकर ने अपनी बेटी गीता को हाथ में लैंप लिए घर से बाहर निकलते देखा था। हवा से बचाने के लिए वह उसकी लौ को दूसरे हाथों से ढंकने की कोशिश कर रही थी। सावंतवाडी में रहने वाले हलदंकर चित्रकार थे और उनके मस्तिष्क में यह छवि बस गई थी। 1945-46 में उन्होंने इसे पेंटिंग का रूप दिया, जिसे आज कालजयी श्रेणी में रखा जाता है। हलदंकर ने बेटी को तीन घंटे तक लैंप लिए इसी अंदाज में खड़े रखा और तब जाकर यह वाटरकलर तैयार हुआ। करीब दो साल बाद दशहरे पर मैसूर के राजाओं द्वारा आयोजित एग्जीबीशन में इसे पहला पुरस्कार मिला। इसे तत्कालीन शासकों ने खरीद लिया और मैसूर पैलेस लेकर गए, जहां से यह आर्ट गैलरी पहुंचा। लेडी विद लैंप और ग्लो ऑफ होप के नाम से मशहूर यह पेंटिंग पिछले सात दशकों से आर्ट गैलरी का सबसे बड़ा आकर्षण बना हुआ है। ख्यात कलाकारों, समीक्षकों से लेकर गैलरी में आने वाले आम दर्शक तक पेटिंग की जो बात आकर्षित करते हैं, वह है इसकी सादगी।
आगरा घराने की हिंदुस्तानी संगीतकार गीता, कृष्णराव उपलेकर के साथ शादी के बाद कोल्हापुर गई। उनकी चार संतानें हैं- तीन बेटियां और एक बेटा राजशेखर, जिसके साथ अभी वे रहती हैं। दुनिया की नजरों से दूर रहने वाली गीता उपलेकर ही शादी से पहले गीता हलदंकर थीं, जिन्हें देखकर ये पेंटिंग बनाई गई थी। 98 साल की गीता अब बिस्तर से उठ भी नहीं पातीं। 70 साल पुरानी हो चुकी यह पेंटिंग म्यूजियम की तीन बेशकीमती धरोहरों में शामिल है। इसमें राजा रवि वर्मा की बनाई 16 मूल कलाकृतियां और फ्रांसीसी कैलेंडर घड़ी भी शामिल है जो 150 वर्ष से ज्यादा पुरानी है। रवि वर्मा की कलाकृतियां ऑइल पेंटिंग हैं जबकि यह वाटरकलर से बना है।
स्टोरी 2: पेंटिंगके मुकाबले संगीत लोकप्रिय कला है। यह जितनी बार रेडियो पर बजता है या जितना ज्यादा आप सुनते हैं, इसकी लोकप्रियता उतनी ही बढ़ती जाती है, लेकिन एक संगीत ऐसा भी है जो कभी किसी रेडियो स्टेशन पर नहीं बजाया गया। फिर भी फिल्म संगीत में रुचि रखने वाला हर युवक आसानी से इसे पहचान सकता है। इसमें केवल एक सितार की धुन है। इसकी रचना करीब 40 साल पहले हुई थी और एक हिट फिल्म में इसका इस्तेमाल किया गया है। करीब चार मिनट की इस धुन को बजाते ही दर्शक और श्रोताओं को फिल्म की थीम का पता लग जाता है। यहां बात 1975 में बनी फिल्म शोले की हो रही है। फिल्म का टाइटिल ट्रैक सामान्य, लेकिन अलग हटकर है जिसे आरडी बर्मन ने तैयार किया था। संगीतकार ने इस सामान्यता में ही असमान्य संगीत रच दिया है।
स्टोरी 3: शंकरशैलेंद्र पश्चिमी रेलवे के कर्मचारी थे ओर शेर लिखना पसंदीदा शगल था। जब भी मन में लहर उठती, अपनी भावनाओं को कागज पर उतार देते। वे हमेशा ऐसे हिंदी शब्दों का इस्तेमाल करते थे, जिसे आम इंसान समझ सके। उर्दू भाषा का अपना ज्ञान बघारने में नहीं लग जाते। अपनी पहली फिल्म आग के निर्माण से पहले राज कपूर ने उन्हें सुना और फिल्म के गीत लिखने का प्रस्ताव उन्हें दिया, लेकिन शैलेंद्र ने यह कहकर मना कर दिया कि उनकी लेखनी बिकाऊ नहीं है। हालांकि, थोड़े दिनों बाद शैलेंद्र गंभीर आर्थिक तंगी में उलझ गए और मजबूरी में राज कपूर से संपर्क किया। राज कपूर ने उन्हें अपनी दूसरी फिल्म बरसात में मौका दिया। एक बार यह सिलसिला शुरू हुआ तो बरसों तक यह जोड़ी साधारण शब्दों में लिखे गीतों को प्रोत्साहित करती रही।
फंडा यह है कि आपकाम जितना साधारण होगा, अलग-अलग परिस्ितियों के अनुरूप ढालना उतना ही आसान होगा और उतना ही लोकप्रिय भी होगा।
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साभार: भास्कर समाचार
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