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स्वामी विवेकानंद शिकागो की विश्व धर्म संसद के लिए अमेरिका पहुंच गए थे।
अभी धर्मसंसद में कुछ दिन शेष थे। जाहिर है धर्मसंसद में न उनका ऐतिहासिक
उद्बोधन हुआ था और न उन्हें ख्याति मिली थी। अमेरिका में पहुंचने के बाद भी
वे संन्यासियों की वेशभूषा में रहते थे। कषाय वस्त्र, सिर पर पगड़ी, हाथों
में डंडा और कंधों पर चादर डली हुई। इसी वेशभूषा में वे एक दिन शिकागो की
सड़कों पर भ्रमण कर रहे थे। अमेरिका के वासियों के लिए यह वेशभूषा न सिर्फ
अचरज की वजह थी, बल्कि काफी हद तक उनके लिए यह उपहास का विषय थी। स्वामीजी के पीछे-पीछे चल रही एक अमेरिकी महिला ने अपने साथ के पुरुष से
कहा, जरा इन महाशय को तो देखो, कैसी विचित्र पोशाक पहन रखी है!’ स्वामी
विवेकानंद ने सुन लिया और समझ भी लिया कि ये अमेरिकी उनकी इस भारतीय
वेशभूषा को हेय नजरों से देख रहे हैं। वे रुक गए और उस महिला को संबोधित कर
बोले, ‘बहन! मेरे इन वस्त्रों को देखकर आश्चर्य मत करो। तुम्हारे इस देश
में कपड़े ही सज्जनता की कसौटी हैं, किंतु मैं जिस देश से आया हूं, वहां
सज्जनता की पहचान मनुष्य के कपड़ों से नहीं, बल्कि उसके चरित्र से होती है।
कपड़े तो ऊपरी दिखावा भर हैं। चरित्र व्यक्तित्व का आधारभूत तत्व है।’
स्वामीजी के सटीक उत्तर को सुनकर उस महिला का सिर शर्म से झुक गया। इसके
बाद जब विश्व धर्म संसद का आयोजन हुआ तो स्वामीजी का अद्भुत संबोधन सुनकर
अमेरिकावासियों के मन में उनके प्रति गहरी श्रद्धा का भाव आ गया और भारत के
विषय में उनकी सोच बदल गई। इस तरह स्वामीजी ने भारतीय संस्कृति को मान
दिलाया। व्यक्ति के आचरण से उसकी सच्ची पहचान होती है। वस्तुत:
संस्कारशीलता वस्त्र या आभूषण आदि से नहीं, बल्कि कर्म की श्रेष्ठता से
प्रतिबिंबित होती है।
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साभार: डीबी समाचार
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