एन रघुरामन (मैनेजमेंट फंडा)
गुरुवार सुबह 2.30 बजे। मुंबई में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों विमानतलों पर जेट एयरवेज के सभी चेक-इन काउंटर पर व्यवस्था ठप थी और 100 से ज्यादा काउंटर पर यात्रियों की लंबी घुमावदार कतारें लगी थी। समस्या कई घंटों तक जारी रही। 100 में से सिर्फ छह काउंटर पर ही स्टाफ मैन्यूअली काम कर पा रहे थे।
एयरपोर्ट स्टाफ काफी शर्मिंदा था, लेकिन बोर्डिंग पास उन्हीं लोगों को जारी कर रहा था और लगेज भी उन्हीं के स्वीकार कर रहा था, जिन यात्रियों का डिपार्चर टाइम पहले था। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। उदाहरण के लिए अगर मुंबई से पहली फ्लाइट उदयपुर की थी तो वे चेक-इन में पहले इसी विमान से जाने वालों की मदद कर रहे थे, ताकि उड़ान में देरी हो। एक जेंटलमैन जो अपने डिपार्चर टाइम से दो घंटे पहले एयरपोर्ट गए थे, काउंटर पर खड़े थे। उन्हें इंतजार करने का कहा गया था। और स्टाफ उदयपुर जाने वाले यात्रियों को अन्य से आगे आने का कह रहे थे और फिर उन लोगों को जिनकी फ्लाइट पहले जाने वाली थी। उस नाराज यात्री के लिए यह जलती आग में घी डालने जैसा था। उसे लग रहा था कि जो यात्री पहले आए हैं उन्हें पहले अटेंड किया जाना चाहिए, क्योंकि आम तौर पर ऐसा ही होता है। स्टाफ की बार-बार की अपील का उसके बंद कानों पर कोई असर नहीं हो रहा था। उसने वैसा ही सोच रहे बहुत से लोगों की भीड़ जुटा ली थी।
अधिकांश लोग तनाव में थे और बहस में उलझे थे कि काम करने का यह तरीका सही है या गलत। उन्होंने मैनेजमेंट का अपना पूरा ज्ञान एयरलाइन स्टाफ को सुना दिया था और वह भी काफी ऊंची आवाज में, लेकिन दुखद यह था कि उन्हें यह नहीं पता था कि कैसे स्वयं को संभाले। उनके और मेरे बीच में कोई 60 यात्री होंगे और इत्तेफाक से वे उसी फ्लाइट से जा रहे थे, जिससे मुझे जाना था। लेकिन एयरलाइन इस बात पर दृढ़ थी कि पहले उन्हीं यात्रियों को लिया जाए, जिनकी फ्लाइट पहले जाने वाली है, कि उनको जो पहले चेक-इन काउंटर पर आए हैं। वे यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे थे कि किसी यात्री को असुविधा हो, सभी विमान तय समय पर उड़ान भरें। साथ ही यात्रियों से भी शांत बने रहने की अपील कर रहे थे। आश्चर्य यह था कि हंगामा कर रहे यात्री भी देख रहे थे कि सभी उड़ानें तय समय पर ही जा रही हैं, लेकिन वे समझने को तैयार नहीं थे कि ऐसा क्यों हो पा रहा है। मेरी फ्लाइट ने तय समय पर 5.40 बजे उड़ान भरी। मेरी पीछे वाली कतार में दो यात्री ऐसे बैठे थे, जो एयरपोर्ट पर सबसे ज्यादा चिढ़ रहे थे। भोपाल पहुंचने के दौरान पूरी फ्लाइट में वे आपस में एयरलाइन के उस वर्क कल्चर की चीर-फाड़ करते रहे, जो उनके अनुसार काफी बुरा था।
उड़ान तय समय पर पहुंची। उनमें से एक नाराज यात्री ने अपना फोन उठाया और अपने ड्राइवर को चेतावनी दी, 'मुझे कोई सफाई मत देना और एग्जिट गेट के ठीक सामने ही कार लगाना। मुंबई में पहले ही काफी बुरा हो चुका है'... और इसी तरह की बातें। जाहिर है वे कहीं का गुस्सा कहीं उतार रहे थे। उतरने के करीब 15 मिनट बाद जब मैं अपनी कार में बैठ रहा थार तो दूसरे चिढ़े हुए यात्री ने मेरे ड्राइवर से पूछा कि ओला कैब कहां से मिल सकती है। जवाब मिला, 'मुझे नहीं पता।' इतना सुनना उनके फिर से चिढ़ने के लिए काफी था। अब बारी थी मेरे ड्राइवर की। उसने कहा, 'आप भोपाल में रहते हैं और आपको नहीं पता कि कैब कहां मिलेगी? यह सब गड़बड़ एयरलाइन से टैक्सी ड्राइवर तक चल रही है। और फिर वे नाराज होते हुए कैब तलाशते हुए आगे बढ़ गए। मैंने अपने ड्राइवर को शांत किया और कहा कि वे बीमार हैं और खुद को संभाल नहीं पा रहे हैं, माफ कर दो'। मैं नहीं जानता कि उन लोगों का दिन कैसा बीता होगा जो इनसे गुरुवार को मिले होंगे।
फंडा यह है कि तनावहालात से पैदा नहीं होता है, बल्कि यह शुद्ध रूप से खराब सेल्फ मैनेजमेंट का नतीजा होता है।
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साभार: भास्कर समाचार
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