रामचन्द्र गुहा (लेखक और इतिहासकार)
अभी मैं मिशेल वैलबेक का मशहूर उपन्यास सबमिशन पढ़ रहा था। उपन्यास की पृष्ठभूमि 2022 की है। उपन्यासकार ने उस माहौल की कल्पना की है, जब एक इस्लामी पार्टी फ्रांस पर कब्जा कर लेती है। उपन्यास का एक किरदार इस पार्टी के एजेंडे को कुछ इन शब्दों में बयां करता है, ′सभी जानते हैं कि मुस्लिम ब्रदरहुड एक फिजूल पार्टी है। जो सामान्य राजनीतिक मुद्दे होते हैं, वे उनके लिए कोई मायने नहीं रखते। सबसे पहली बात तो अर्थव्यवस्था की है, जो उनकी चिंता में कहीं नहीं ठहरती। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। उन्हें सिर्फ जन्म दर और शिक्षा की परवाह है। उनके गणित को समझना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है। आबादी के जिस हिस्से की जन्म दर सर्वाधिक हो, और जो उनकी पार्टी के बुनियादी मूल्यों का समर्थन करता हो, बढ़त उसी को मिलती है। इस पार्टी की सोच यह है कि अगर आप बच्चों पर नियंत्रण रख सकें, तो भविष्य आपकी मुट्ठी में होगा। शायद यही वजह है कि यह पार्टी बच्चों की शिक्षा पर खास जोर देती है।’ वैलबेक यहां फ्रांस में मुस्लिम कट्टरपंथियों के बारे में लिख रहे हैं। मगर क्या यही बात भारत में हिंदू कट्टरपंथियों पर भी लागू होती है?
′शिक्षा′ और ′आबादी′ ये दो बिंदु देश के सबसे प्रभावी हिंदू संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यक्रम का केंद्रबिंदु बने हुए हैं। संघ ने हजारों स्कूल खोले हैं, जिसके पाठ्यक्रमों में हिंदू सभ्यता की महानता पर खास जोर दिया जाता है। जब भी इसकी राजनीतिक इकाई (कभी जनसंघ, जो अब भाजपा में तब्दील हो चुकी है) को सत्ता मिली, तब संघ ने स्कूलों पर ऐसे पाठ्यक्रम को अपनाने का दबाव बनाया, जिसमें हिंदू देवी-देवताओं और नायकों का महिमा-मंडन किया गया हो।
जनसंघ का गठन 1951 में हुआ। सोलह वर्ष बाद यह मध्य प्रदेश में एक गठबंधन सरकार का हिस्सा बना। पहली बार उसे इस तरह ताकत मिली थी। एक वरिष्ठ नौकरशाह ने बाद में उल्लेख किया कि जनसंघ सबसे पहले शिक्षा से जुड़ा मंत्रालय पाना चाहता था, ताकि प्राथमिक स्कूलों के जरिये वह अपना एक स्थायी आधार बना सके। जनसंघ को अंततः गृह मंत्रालय मिला, जिसमें (जैसा कि वरिष्ठ नौकरशाह बताते हैं) उसने इस बात का खास ध्यान रखा कि किसी विभाग में कोई बड़ा पद किसी मुस्लिम को न मिल सके। यह सिलसिला अगले पचास वर्षों तक चलता रहा। जब भी जनसंघ को सत्ता मिली, संघ ने स्कूलों और शिक्षा पर प्रत्यक्ष नियंत्रण की कोशिश की।
दूसरी ओर, आबादी भी उनके लिए एक बड़ा मामला था। देश की कुल आबादी में मुसलमानों की तेजी से बढ़ती तादाद का डर हिंदुत्व कार्यकर्ताओं, यहां तक कि, भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को सताने लगा। गुजरात में एक चुनाव अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने मुसलमानों पर ′हम पांच, हमारे पच्चीस′ की नीति पर चलने का आरोप लगाया।
बहुविवाह निस्संदेह न केवल घिनौनी प्रथा है, बल्कि महिलाओं के अधिकारों के भी खिलाफ है। मगर, संघ के भीतर इसे लेकर जो डर समाया है, वह समझ से परे है। एक मुस्लिम मर्द की चार बीवियां होने का अर्थ क्या यह है कि तीन मुस्लिम मर्दों को बीवियां नहीं मिलेंगी?
बेशक मुसलमानों की जन्म दर हिंदुओं से ज्यादा है, मगर तथ्य यह भी है कि मुसलमान औसत हिंदुओं की तुलना में गरीब हैं। शायद इसी कारण उनकी जन्म दर में निरंतर गिरावट आ रही है। इसके बावजूद मुसलमानों के जनांकिकीय आघात का भय हिंदुत्ववादियों की नींदे उड़ाए हुए है। भाजपा के एक सांसद ने तो हर हिंदू महिला से पांच या छह बच्चे पैदा करने का आह्वान तक कर दिया है, ताकि हिंदू इस प्रतिस्पर्धा में टिके रह सकें।
धर्म कुमार ऐसे इतिहासकार थे, जिन्होंने पहली बार हिंदुत्व और इस्लाम के बीच होने वाली ऐसी तुलनाओं की शिनाख्त की थी। यह 1990 के दशक के शुरुआत की बात है, जब राम जन्मभूमि आंदोलन पूरे जोरों पर था, जिसकी वजह से देश भर में अल्पसंख्यकों पर हमले होने लगे थे। धर्म कुमार ने तब कहा था कि संघ हिंदुओं के लिए एक इस्लामी राज्य बनाना चाहता है। गौरतलब है कि मध्यकालीन इस्लामी राज व्यवस्थाओं में यहूदियों और ईसाइयों को दूसरे दर्जे का माना जाता था। तब ये लोग प्रशासनिक पद नहीं संभाल सकते थे। इन्हें शांतिपूर्वक अपना व्यवसाय चलाने की छूट थी, पर वह भी तब, जब वे राजनीतिक अधीनता स्वीकार किए हुए हों। ठीक ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद संघ भारत में ईसाइयों और मुसलमानों से करता है।
हाल ही में एक दूसरे इतिहासकार इरफान हबीब ने संघ की तुलना इस्लामिक स्टेट से की, जो अतिरंजित है। इस्लामिक स्टेट किसी एक देश पर नहीं, पूरी दुनिया पर हुकूमत करना चाहता है। वह ईसाइयों, यजदियों और यहां तक कि शियाओं के सामूहिक नरसंहार की मंशा रखता है।
मेरे ख्याल से धर्म कुमार की तुलना वाजिब है। संघ मुस्लिमों और ईसाइयों के पूरी तरह खात्मे के बजाय उनकी अधीनता की चाह रखता है। इसकी वजह भारतीय संविधान है, जिसने भारत में एक खुले, विविध और लोकतांत्रिक समाज की नींव रखी थी। संघ की इस सोच की तरह मिशेल वैलबेक के उपन्यास में भी इस्लामपंथी इराक और सीरिया में चल रही खूनी लड़ाइयों की जगह सुधारवादी नजरिया रखते हैं। वे बेहद चालाकी से दूसरे गुटों के साथ गठजोड़ करते हुए अपना प्रभाव और तादाद बढ़ाने की कोशिश करते हैं। हॉलबेक के उपन्यास में पूरी लड़ाई की पृष्ठभूमि में एक कुलीन विश्वविद्यालय है, जो कभी रिपब्लिकंस और अनीश्वरवादियों के नियंत्रण में था, मगर अब धीरे-धीरे उस पर इस्लामी शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
वैलबेक के सबमिशन के दो अर्थ हैं। पहला, धार्मिक कट्टरपंथ और दमनकारी प्रवृत्तियों के सामने व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छाशक्ति की अधीनता, जबकि दूसरा अर्थ है महिलाओं की पुरुषों के समक्ष अधीनता। उपन्यास में जिस भविष्य की कल्पना पेश की गई है, उसमें फ्रांस की महिलाएं स्कर्ट नहीं पहन सकतीं। मुसलमान महिलाएं बुर्कानशीन हैं। इन महिलाओं का अस्तित्व केवल अपने पतियों के लिए स्वादिष्ट भोजन तैयार करने और उनकी शारीरिक जरूरतें पूरी करने पर टिका है। बस यहीं, एक बार फिर, कट्टरपंथी हिंदुत्व से उनकी तुलना की जमीन तैयार होती है। भारत में मुस्लिमों और ईसाइयों (दलित और आदिवासी भी) पर खान-पान की अपनी शैली को ऊंची जाति वाले हिंदुओं के पैटर्न के अनुरूप ढालने का दबाव बनाया जा रहा है। हिंदू कट्टरपंथी छोटे शहरों में उन महिलाओं पर हमले कर रहे हैं, जो जींस पहनती हैं। ऐसे लोग यह मांग भी कर रहे हैं कि ग्रामीण महिलाओं को अपना जीवन साथी चुनने की आजादी नहीं मिलनी चाहिए।
पितृसत्ता (पुरुष प्रधानता) और कट्टरता निश्चय ही धार्मिक बहुलतावाद के जुड़वा आधार हैं। यह तथ्य हर समय और हर जगह के लिए सच है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है।
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साभार: अमर उजाला समाचार
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