जगमोहन सिंह राजपूत (एनसीइआरटी के पूर्व निदेशक)
अवार्ड वापसी पर चर्चा फिर वापस आ गई है। ‘काशी की अस्सी’ के मशहूर लेखक काशीनाथ सिंह अब अपना पहले वापस किया गया अवार्ड फिर से लेने को तैयार हैं। कई अन्य भी इस श्रेणी में शामिल हो गए हैं, क्योंकि उन्हें पता चल गया है कि वापस करने का कोई प्रावधान था ही नहीं। देर आयद दुरुस्त आयद। यह भी कहा जा रहा है कि वापस करने का उद्देश्य पूरा हो गया है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। प्रश्न केवल इतना छोटा नहीं है। देश-विदेश में भारत की प्रतिष्ठा को जो चोट पहुंची है, उसकी क्षतिपूर्ति कौन करेगा? क्या इसकेलिए कुछ लोग ही सही देश से माफी मांगेंगे? आमिर खान दोहरा रहे हैं कि वे देश को बहुत प्यार करते हैं, पंद्रह दिन से अधिक विदेश प्रवास नहीं कर सकते हैं। किसी को उनकी देशभक्ति पर संदेह न था, न उनके चर्चित बयान के बाद है। मगर वह लोगों के दिल से यह कभी भुला नहीं पाएंगे कि दस वर्ष तक अतुल्य भारत का ब्रांड एंबेसडर रहा लोगों का चहेता हीरो अपने घर में अपनी पत्नी को देशप्रेम का ककहरा क्यों नहीं सिखा पाया। क्या आमिर खान और अनेक लेखक उस प्रवाह में बह गए जिसे सत्ता से जनता द्वारा दूर किए गए राजनेताओं के इशारे पर प्रारंभ किया या कराया गया था? क्या इसमें वे लोग शामिल नहीं थे जो दशकों से सत्ता से मिलने वाले पद, पदक और प्रतिष्ठा को अपना शाश्वत अधिकार मान चुके थे? सब कुछ उसी अंदाज में हुआ जैसे 2000-04 के समय इसी वर्ग ने भगवाकरण का नारा उछाला था। इस बार उन्होंने असहिष्णुता का सहारा लिया।
कष्ट तो सारे देश को हुआ जब नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे तथा प्रोफेसर एमएम कलबुर्गी की हत्याएं हुईं। दादरी के पास के गांव में मोहम्मद अखलाक की जघन्य हत्या हर सभ्य और सुसंस्कृत समाज के मुंह पर कालिख लगाती है। बौद्धिक वर्ग का उत्तरदायित्व ऐसे अवसरों पर आग में पानी डालने का होता है, न कि उसमें तेल डालने का। अपेक्षा थी कि श्रेष्ठ पदों पर रह चुके लोग, पदक और पुरस्कारों से राष्ट्र द्वारा सम्मानित वरिष्ठजन उन मूलभूत कारणों का निष्पक्ष विवेचन करेंगे जिनके कारण किसी भी वर्ग या समाज या पंथ में अन्य के प्रति दुर्भावना उत्पन्न होती है। वे जनमत को दिशा दे सकते थे। असहिष्णुता के नारे लगाने वालों के लिए विचारणीय होना चाहिए था कि देश की जनता ने पिछले आम चुनाव में केवल दलगत राजनीति के आधार पर ही मतदान नहीं किया है। सत्ता के लिए उसने राजनीतिक दल के साथ-साथ व्यक्ति-विशेष का चयन भी किया है। किसी भी विद्वान को यह बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि लोग विकास की प्रक्रिया के गतिमान होने के लिए नरेंद्र मोदी पर विश्वास बनाए हुए हैं और इसमें जो भी उनके मार्ग को अवरुद्ध करने का प्रयास करेगा उसे जनता की सहमति तो नहीं केवल आक्रोश ही मिलेगा। जो राजनीतिक दल यह नहीं समझ पा रहे हैं, वे अपनी राह में कांटे खुद ही बो रहे हैं। बौद्धिक वर्ग उनके प्रभाव पर अपना आचरण निर्धारित करे तो इसे दुर्भाग्य ही मानना होगा। अब जब बहस समाप्त हो रही है, लोग आक्रोश से मुक्ति पा चुके हैं, असहिष्णुता के कहीं पर भी पनपने के कारणों का विश्लेषण आवश्यक है ताकि अवार्ड वापसी जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो और देश की प्रतिष्ठा को आगे कभी आंच न आए।1भारत के संविधान निर्माता जानते थे कि अनगिनत विषमताओं से भरे इस भारतीय समाज के लिए सबसे शक्तिशाली आशा की किरण केवल एक है-सभी तक शिक्षा का प्रकाश पहुंचाना। सभी को समानता और न्याय देने के लिए भी यह आवश्यक था। दस वर्ष में चौदह साल तक के हर बच्चे को शिक्षित करने का नीति-निर्देशन अपने आप में अत्यंत साहसपूर्ण निर्णय था। आशा तो यही थी कि इस रोशनी में एक दूसरे के प्रति आदर, सद्भाव और अपनत्व लगातार बढ़ेंगे और वे तत्व कमजोर होते जाएंगे जो वर्गभेद को जाति, पंथ, क्षेत्रीयता, भाषा या अन्य आधार पर बढ़ाना चाहते हैं। शिक्षा में उपलब्धियां अनेक हैं, लेकिन एक सहिष्णु समाज के निर्माण में शिक्षा का जो योगदान होना चाहिए था उसकी पृष्ठभूमि निर्मित नहीं हो पा रही है। इसमें क्या प्रयास किए जाएं, इस पर अवार्ड पाने वालों को सबसे आगे बढ़कर देश को रास्ता दिखाना चाहिए। क्या वे इस तथ्य से अपरिचित हैं कि जिस ढंग से शिक्षा के क्षेत्र में निजी निवेशक पदार्पण कर रहे हैं उससे हर प्रकार का वर्ग भेद बढ़ रहा है? क्या वे इस पर विचार नहीं करना चाहेंगे कि स्पष्ट संवैधानिक निर्देश के बावजूद सरकारों ने सरकारी स्कूलों की ओर ध्यान नहीं दिया और निजी निवेशकों के लिए हर प्रकार की सुविधाएं प्रदान कीं?
1980 में निजी स्कूलों का प्रतिशत केवल दो था जो आज 35-40 के आसपास है और लगातार बढ़ रहा है। आज यही निजी निवेशक शिक्षा के अधिकार अधिनियम के उस प्रावधान को भी ठुकरा रहे हैं जिसमें प्रारंभिक कक्षाओं में 25 प्रतिशत स्थान कमजोर वर्ग के लिए आरक्षित किए गए हैं। कुछ लोगों को याद है कि 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में समान स्कूल व्यवस्था की संस्तुति की गई थी। इसके पहले कोठारी कमीशन के प्रतिवेदन के बाद 1967 में शिक्षा पर बनी एक संसदीय समिति ने भी इस प्रकार की स्कूल व्यवस्था की संस्तुति की जहां पड़ोस के स्कूल में ही हर मां-बाप अपने बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने भेजेंगे। आज निजी स्कूलों के प्रबंधक कहते हैं कि आरटीई एक्ट के अंतर्गत 25 प्रतिशत प्रावधान के अंतर्गत प्रवेश पाए बच्चे बाकी के साथ कैसे ‘अडजस्ट’ होंगे? क्या यह स्थिति असहिष्णुता के बीज नहीं बोती है? यदि भारत का प्रबुद्ध वर्ग अपने को दलगत और राजनीतिक विचारधाराओं के बंधन से मुक्त होकर एक सहिष्णु समाज बनाने में योगदान करने का निर्णय कर ले और उसका प्रारंभ सरकारी स्कूलों की स्थिति को सुधारने तथा सुधरवाने से करे तो यह उनका राष्ट्र निर्माण में अद्भुत योगदान होगा। सहिष्णुता बढ़ाने का रास्ता भारत के प्राथमिक विद्यालयों के दरवाजे से होकर ही जाएगा।
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साभार: जागरण समाचार
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