Monday, February 1, 2016

प्रेरणा: चुनौती से 'भीतर' दौड़ने लगती है बिजली

आबिद सूरती (राष्ट्रीयपुरस्कार प्राप्त लेखक, कार्टूनिस्ट और रंगकर्मी)
दिल और दिमाग के दरवाजे खुले रखना ही रचनात्मकता की कुंजी है। उम्र बढ़ती है तो कहा जाता है कि सठिया गया है। मतलब यह है कि उस व्यक्ति ने दिल या दिमाग के दरवाजे बंद कर दिए हैं। अगर दरवाजे खुले रखें तो ताजा हवा सकती है। जब मैं 7-8 साल का था तब मेरे दोस्त 25-30 साल के थे। मुझे उन लोगों से मार्गदर्शन मिलता रहा। अब उम्र के इस पड़ाव पर मेरे दोस्त 20 की उम्र के हैं। उनसे ताज़गी मिलती है। कोई पूछता है कि आबिद भाई आपकी उम्र क्या है तो मैं कहता हूं, 'उम्र 20 साल है, लेकिन तजुर्बा 60 साल का है।' यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मेरे बड़े दोस्तों में एक जैन मुनि भी थे। बड़े जिंदादिल। वे मुझे कहते आज यहां चलते हैं, आज वहां चलते हैं। एक बार कला प्रदर्शनी में ले गए। चित्र खराब थे। रंग-संयोजन खराब था। मेरे मुनि मित्र चित्रकार के पास गए और बोलेे, 'बंधु ये फ्रेम्स आपने कहां बनवाई? बहुत ही खूबसूरत हैं।' उन्होंने पॉजिटिव चीज पकड़ी, निगेटिव छोड़ दिया तो वह सबक मैंने वहां सीखा। रचनात्मकता का कोई भी क्षेत्र हो वह मेरे लिए बड़ा आसान रहा है। जैसे एक बार एक बंदा आया चलो आबिद भाई नाटक करते हैं। उसके पास कहीं से पैसा गया था और मैंने कभी नाटक किया नहीं था। मैंने ओरिजनल नाटक लिखा, मंचित किया और डायरेक्ट किया, उसमें काम किया और वह नाटक सुपरहिट रहा। नाम था, 'राधे राधे हम सब आधे।' उसके पचास शो किए। बाद में तो मैं ही बोर हो गया। चुनौती के तौर पर नाटक आया तो कर लिया। 
कार्टूनिंग में भी मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी। बचपन में फुटपाथ पर परवरिश हो रही थी। हम उस क्षेत्र के बच्चे टोली बनाकर भीख मांगने जाते थे। तो भीख में किसी ने कॉमिक्स की किताब दे दी। सारे बच्चे टूट पड़े। एक पन्ना मेरे हाथ में भी गया। देखा तो मिकी माउस का कॉमिक था। मुझे लगा कि यह तो मैं भी कर सकता हूं। मैंने शुरू कर दिया। नकल करते-करते कार्टूनिस्ट बन गया। शरत बाबू की किताबें पढ़ता था तो लगता था कि यह तो मैं भी कर सकता हूं। सारी चीजें मैं इस नज़रिये से देखता था कि जो आप कर सकते हैं, मैं क्यों नहीं कर सकता। मूलत: मैं चित्रकार था, लिखना मैंने इसलिए शुरू किया कि पेंटिंग का खर्च निकालना था। चित्रकला बड़ा खर्चिला शौक है और शुरुआत में बिकने की कोई गुंजाइश नहीं होती। लेखन और कार्टूनिंग से मुझे सपोर्ट मिला। फिर आर्थिक स्थिति ठीक हो गई तो भी लेखन छोड़ा नहीं। पहले मैं पैसे के लिए लिखता था। एक बार एक आदमी आया बोला मैं कामसूत्र पर किताब लाना चाहता हूं, मैंने कहा दस हजार रख। मैंने टाइटल भी सोचा एटी फिफ्थ आसन (85वां आसन)। मूल किताब में 84 है। मैंने कहा 85 से शुरू करके मैं अागे ले जाऊंगा। बंदे ने साइनिंग के हजार रुपए दिए और फिर आया ही नहीं, मतलब यह कि मैं कुछ भी लिखता था। आर्थिक स्थिति अच्छी हुई तो प्रतिबद्धता के साथ लेखन करने लगा। कोई मेरी किताब पढ़े तो उसमें से कुछ सीखे। जैसे मेरी किताब 'बहत्तर साल का बच्चा', अब संदेश यह है कि रिटायरमेंट पर उम्र खत्म नहीं होती। 
मेरा फेमस कैरेक्टर 'ढब्बूजी' भी पैसे के लिए ही वजूद में आया था। मैंने गुजराती के लिए इसे बनाया था। नाम था बटुक भाई यानी बौने मियां। मंुबई से कार्टूनिंग की पत्रिका निकलती -चेत मछंदर। उसमंे कॉमिक स्ट्रीप शुरू हुई। एक माह में ही उसकी आलोचना शुरू हो गई। तीसरे महीने में बंद करना पड़ा। फिर 1963 में धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती ने मुझे बुलाया। कहा कि देश आजाद हुए इतने साल हो गए हम आज भी फैंटम छाप रहे हैं। कोई भारतीय कैरेक्टर होना चाहिए। उन्होंने कई कार्टूनिस्ट आजमाए। तब मारियो मिरांडा भी थे, लेकिन उन लोगों का वही हश्र हुआ जो मेरा गुजराती में हुआ। मेरी बारी आखिर में आई। तब मैं बच्चों की पत्रिका 'पराग' से जुड़ गया था। भारतीजी ने बुलाया और कहा तुम भी हाथ आजमा लो। मैंने वही, जो मेरे पास गुजराती का काम पड़ा हुआ था, तीन महीने का। लिपी बदलर उनको भेज दिया। वह पहले महीने से ही सुपरहीट हो गया। तीस साल तक नॉन स्टॉप चला। वहां क्यों नहीं चला, यहां क्यों हिट रहा? यह राज क्या है यह तो ऊपर वाला ही जाने। मेरे दूसरे लोकप्रिय कैरेक्टर 'बहादुर' के नाम से तो सैन फ्रांसिस्को में आज भी 'बहादुर क्लब' है। वहां सौ डॉलर में एक-एक कॉमिक्स एक्सचेंज होता है। मेरा एक दोस्त है, बहादुर के लिए एकदम पागल। उसके पास सारे कॉमिक्स थे, लेकिन पहला नहीं था। उसे कहीं मिला, उसके 25 हजार रुपए मांगे। अभी उसे 10 हजार में मिला तो उसने खरीद लिया। प्रेरणा की बात है तो मुझे यह चुनौती से मिलती है। मेरा स्वभाव ही था कि आप कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। जैसे शिया मुस्लिमों में शब-ए-आशुर को आग पर चलते हैं। कनाडा से एक फोटोग्राफर आया उसे आग पर चलने वाले मुसलमानों की तस्वीरें लेनी थी। हम वलसाड गए। मैंने देखा वहां तो बच्चे भी थे। मैंने खुद से कहा लानत है बच्चे चल सकते हैं और मैं नहीं चल सकता। मैं आग पर चल गया और मुझे कुछ नहीं हुआ, चुनौती आए तो भीतर एकदम से बिजलियां दौड़ने लगती हैं। 
जहां तक 'ड्रॉप डेड' मुहीम की बात है, मेरी परवरिश फुटपॉथ पर हुई। इसका मतलब है एक-एक बूंद पानी के लिए संघर्ष। बाकी बचपन तो छूट गया, लेकिन यह मैं भूल नहीं पाया। जब भी मैं किसी दोस्त के यहां जाता तो फौरन मेरे कान पकड़ लेते कि कहीं कोई नल टपक रहा है। मैं कहता सुधरवालो। वे कहते हां करवा लेेंगे। मैं पीछे पड़ जाता। वे कहते आबिद भाई क्यों सिर पचा रहे हो। बूंदें ही जा रही है, कोई गंगा तो नहीं बह रही। अब इसका जवाब मेरे पास नहीं था। एक बार अखबार पढ़ रहा था तो उसका जवाब भी मिल गया कि एक सेकंड में एक बूंद टपकती है तो महीने में एक हजार लीटर पानी गटर में बह जाता है। साथ में यह आइडिया आया कि प्लंबर को लेकर उसके घर पहुंच जाओ और नल ठीक कर दो। मेरी जो पीड़ा थी उसे किसी तरह निकालकर फेंकना था। पहले तो सारे दोस्तों के नल ठीक कर दिए। फिर मुझे लगा कि इसे तो आगे बढ़ाना चाहिए। नई पीढ़ी से यही कहना चाहूंगा कि राइटिंग करो या कार्टूनिंग करो। पूरी ईमानदारी से करो वरना मत करो। मैं लक्ष्मण की जगह लेना चाहता हूं, लेकिन मैं जानता हूं कि मुझे पैसा कम मिलेगा तो मैं एनीमेशन में चला जाता हूं। मैं पैसे के लिए शिफ्ट कर रहा हूं। मुझे उसमें जिंदगी में कभी सुख नहीं मिलेगा। पैसा मिलेगा। करोड़पति बन जाएंगे। वॉल्ट डिज़्नी बन जाएंगे, लेकिन भीतर का वह सुख नहीं मिलेगा, जो पसंद का काम करने से मिलता है। दूसरा संदेश यह कि जानकर चलो, मानकर मत चलो। आज दंगे-फसाद यह सब क्यों हो रहा, क्योंकि हम मानकर चल रहे हैं। 
(जैसाउन्होंने आनंद देशमुख को बताया) 
प्रेरणा की बात है तो मुझे यह चुनौती से मिलती है। मेरा स्वभाव ही था कि आप कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। शरतचंद्र की किताबें पढ़ता था तो लगता था कि यह तो मैं भी कर सकता हूं। 
एक बार भीख में किसी ने कॉमिक्स की किताब दी। उसमें मिकी माउस बना था। मुझे लगा कि यह तो मैं भी कर सकता हूं। मैंने शुरू कर दिया। नकल करते-करते कार्टूनिस्ट बन गया। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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