साभार: जागरण समाचार
डॉ. संजीव रॉय (टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में सहायक प्रोफेसर)
सीबीएसई और अन्य शिक्षा बोर्डो के दसवीं और बारहवीं कक्षा के परीक्षा परिणाम आ चुके हैं। अपेक्षा के अनुरूप नंबरों के बढ़ते पैमाने के कारण अगले साल बोर्ड परीक्षा में बैठने वाले बच्चों और उनके माता-पिता पर अधिक
दबाव बनना शुरू हो गया है। जिन छात्रों के 500 में से 495-496 या 497-498 आए हैं वे सोच रहे होंगे कि काश एक कुछ नंबर और आ गए होते। इसके विपरीत जिन छात्रों के अंक उनके स्कूल, मोहल्ले या रिश्तेदारों की तुलना में कम आए होंगे वे एक विशेष प्रकार का दबाव ङोल रहे होंगे। हमारी परीक्षा प्रणाली सिर्फ पास और फेल नहीं करती है, बल्कि एक तरह से स्कूल द्वारा की गई ब्रांडिंग को सामाजिक स्वीकृति में बदल देती है। शुरुआती कक्षाओं से ही स्कूल बच्चों के बारे में एक धारणा बनाता है-ये तेज बच्चे हैं, ये स्कॉलर हैं और ये औसत बच्चे हैं। अपनी इन धारणाओं को शिक्षक और छात्रों के माता-पिता अपने सहकर्मियों के साथ साझा ही नहीं करते हैं, बल्कि जाने-अनजाने अपनी इस धारणा को सही साबित करने का प्रयास भी करते हैं। तुलनात्मक रूप से जिन बच्चों को शिक्षक पसंद करते हैं उन्हें कक्षा के भीतर और स्कूल की गतिविधियों में भागीदारी के अधिक मौके मिलते हैं। जिन छात्रों को शिक्षक पसंद करते हैं वे आगे चलकर अपनी सामाजिक-अकादमिक छवि बनाए रखने की मेहनत करते हैं और सफलता की सूची में अपना नाम दर्ज कर पाते हैं। अपवादों को छोड़ दें तो बहुमत में एक कक्षा के छात्र अपनी औसत गति और शिक्षक द्वारा गढ़ी गई छवि को स्कूल स्तर तक बनाए रखते हैं। स्कूल से निकलने के बाद अधिकांश छात्र अपने जीवन में और शिक्षा सहित अन्य क्षेत्रों में अपनी जगह बना लेते हैं, लेकिन जब भी कभी उन्हें असफलता का सामना करना पड़ता है तो समाज और परिवार स्कूल द्वारा गढ़ी पुरानी छवि को याद दिला देता है कि यह तो स्कूल में भी ऐसे ही थी या ऐसे ही था।
सीखना एक प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक-छात्र, स्कूल-समाज, पाठ्यक्रम जैसे अनेक कारक भागीदारी करते हैं। अगर यह सिर्फ छात्र की अपनी उपलब्धि नहीं होती है तो फिर उसकी असफलता सिर्फ उसकी कैसे हो सकती है? क्या किसी स्कूल ने पढ़ाई की प्रक्रिया को आधार मान कर अपने को पास-फेल करने का कोई तरीका ईजाद किया है? जो अभिभावक अपने बच्चों के कम अंक आने पर निराश हैं, क्या वे यह नहीं जानते कि सफलता कोई स्थाई भाव लेकर नहीं आती है? क्या स्कूली परीक्षा के ये अंक सामाजिक जीवन में सफलता की गारंटी देते हैं? कितने लोगों को वे नाम याद हैं जिन्होंने दो साल पहले हाई स्कूल में टॉप किया था और इस साल सेकेंडरी परीक्षा में भी टॉपर हैं? शिक्षा का मनोविज्ञान बार-बार यह शिक्षकों को याद दिलाता है कि बुनियादी रूप से प्रत्येक बालक/बालिका दूसरों से अलग होता है। क्या किसी भी स्कूल में सभी शिक्षक सुपर श्रेणी के होते हैं? नहीं। छात्र-अभिभावक भी दबी जुबान में कुछ शिक्षकों को औसत दर्जे का मानते हैं और कुछ शिक्षकों को मुश्किल की श्रेणी में रखते हैं। जब विविधता वाले समाज में सभी छात्रों के लिए एक ही तरह की लिखित परीक्षा होगी तो परिणाम भी अलग होंगे। अगर परीक्षा प्रणाली में तैरना, साइकिल चलाना, खेल-कूद, गीत -संगीत, अभिनय-नाटक आदि सब सम्मिलित कर दिया जाए तो क्या तब भी परीक्षा परिणाम यही होंगे?
स्कूल को समाज का एक लघु रूप माना जाता है और उससे यह अपेक्षा रहती है कि वह छात्रों में हौसला-हिम्मत और हुनर पैदा करेगा। अगर बहुमत में छात्र परीक्षा परिणाम के कारण अपना आत्मविश्वास खोते हैं तो स्कूल की जरूरत पर सवाल उठना स्वभाविक है? तकनीकी विस्तार के चलते अब शिक्षक ज्ञान के एकमात्र स्नोत नहीं रह गए हैं और छात्रों की निर्भरता सूचना के दूसरे माध्यमों पर बढ़ रही है। हाईस्कूल, इंटरमीडिएट स्तर पर शिक्षकों की भूमिका पढ़ाने से अधिक फैसिलिटेटर की हो रही है जिसमें अन्य स्नोतों से सामग्री एकत्र करके छात्र अपने प्रोजेक्ट कर रहे हैं। आज अगर सर्टिफिकेट की अनिवार्यता खत्म हो जाए तो कितने स्कूल ज्ञान देने के केंद्र के रूप में अपना अस्तित्व बचा पाएंगे? बढ़ते नंबरों की होड़ से समाज में तुलना और प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है। बच्चों की मार्कशीट का सार्वजानिक प्रदर्शन उनके तनाव का कारण बन सकता है। कहीं ऐसा तो नहीं माता-पिता अपनी असफलताओं की भरपाई बच्चों को लगातार बेहतर प्रदर्शन करने के दबाव से कर रहे हैं? सबको पता है कि अव्वल बने रहने की होड़ जीवन में हर जगह किसी को सबसे आगे नहीं रखेगी। तुलना एक प्रकार की कुंठा और हिंसा को जन्म देती है। ऐसे में यह सवाल भी विमर्श में आना चाहिए कि क्या स्कूल शिक्षा के निर्धारित उद्देश्यों की ओर बढ़ रहे हैं?
अमेरिका में स्कूल लगभग 180 दिन चलते हैं भारत में औसतन 180-200 दिन और जापान में सबसे अधिक 240 दिन। प्रतियोगिता स्थानीय स्तर पर ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है। विभिन्न देश और खासकर दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, चीन आदि शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की बहस चला रहे हैं। पीसा, ओलंपियाड आदि संस्थाओं द्वारा कई देशों के छात्रों की सामूहिक परीक्षा का चलन भी शुरू हुआ है। भारत के साथ अन्य देशों में छात्रों के सीखने के मूल्यांकन को लेकर बहुत सी संस्थाएं काम कर रही हैं। पढ़ाने से अधिक सिखाने के मूल्यांकन को प्राथमिकता देने पर व्यापक बहस की जरूरत है। इसलिए और भी, क्योंकि अब तो नंबरों की होड़ में नर्सरी के बच्चे भी शामिल हो गए हैं। छोटी कक्षाओं में ट्यूशन और कोचिंग सेंटर्स की भरमार हो गई है। हाईस्कूल के पहले ही बच्चे आइआइटी-मेडिकल की कोचिंग में शामिल हो रहे हैं। माता-पिता अपने बच्चों को बेहतर अंक दिलाने के लिए दिन-रात एक कर रहे हैं। बच्चों के शादी-विवाह तक में जाने पर रोक है। होम वर्क का दबाव है। शिक्षकों पर भी दबाव है कि छात्र बेहतर परिणाम लाएं। बच्चों के पास तनाव लेने की क्षमता कम होगी होगी तो हताशा-आत्महत्या की प्रवृति बढ़ती जाएगी। नंबरों की यह होड़ अभी रुकती नहीं दिख रही है, लेकिन धीरे-धीरे कुछ लोग प्रताड़ना वाली इस मूल्यांकन पद्धति से बाहर आना चाहते हैं। परीक्षा से डराकर रखने के बजाय छात्रों को एक बेहतर इंसान बनाने की आवश्यकता है। शिक्षा के उद्देश्य और उन तक पहुंचने की प्रक्रिया की पड़ताल करनी होगी। कुछ लोग विकल्प के तौर पर ओपन स्कूल और होम स्कूलिंग को अपना रहे हैं। ओपन स्कूल में छात्रों को परीक्षा में बैठने के कई मौके मिलते हैं। यह कुछ हद तक छात्रों के लिए कहीं अधिक सुविधाजनक है। जो भी हो, नंबरों की दौड़ को रोकना होगा और मूल्यांकन के अन्य तरीकों को अपनाना होगा।
(लेखक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में सहायक प्रोफेसर हैं)