Monday, July 3, 2017

लाइफ: शक्तिशाली कुर्सियों पर बैठे लोग हृदयहीन नहीं होते

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा स्थित एक सत्र न्यायालय में एक गरीब युवक आरोपी के कठघरे में खड़ा था। वह वहां से 85 किलोमीटर दूर स्थित पातालकोट से आया था। उसके खिलाफ मामला यह था कि उसकी बकरी किसी दूसरे
की जमीन पर जाकर चर आई थी और उसके और जमीन मालिक के बीच झगड़े के दौरान युवक ने कानून हाथ में लेकर भूस्वामी की पिटाई कर उसकी छोटी अंगुली तोड़ दी। उस पर आईपीसी की धारा 325 के तहत गंभीर चोट पहुंचाने का मुकदमा कायम हुआ और इसीलिए वह वहां मौजूद था। गरीब युवक की असहाय स्थिति साफ दिखाई दे रही थी। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। जो पातालकोट के बारे में नहीं जानते उन्हें बता दूं कि यह देश की एकमात्र ऐसी जगह है, जो समुद्र सतह से 1500 फीट नीचे स्थित है और वहां सूर्य की रोशनी दिन में सिर्फ तीन घंटे रहती है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि भरपूर धूप वाले इस देश में ऐसी कोई जगह हो सकती है जहां धूप दुर्लभ है। यहां तो पेड़ भी सूरज की रोशनी के लिए अापस में संघर्ष करते हैं और 70 से 90 फीट ऊंचाई तक बढ़ते हैं ताकि अधिकतम रोशनी मिल सके। बेचारी घास को यहां बचे रहने के ज्यादा अवसर नहीं है और इसीलिए बकरी अन्य जानवर लगातार खाने के लिए हरियाली खोजते रहते हैं। इसीलिए पशुपालकों के सामने हमेशा ही संघर्ष की स्थिति रहती है। 
चूंकि इस गरीब युवा के पास अपना बचाव करने के लिए कोई वकील नहीं था तो जज ने नि:शुल्क विधि सहायता की पेशकश की और मामले को अगली तारीख तक स्थगित कर दिया। उन्होंने अपने स्टाफ को युवक के लिए वकील उपलब्ध कराने का आदेश दिया ताकि मामले पर फैसला देने के पहले वे दोनों पक्षों की व्यवस्थित सुनवाई कर सके। इस युवक के साथ भी न्याय हो सके। चूंकि यह मामूली घटना थी तो जज इसे जल्दी निपटाना चाहते थे। उन्होंने तत्काल बाद की तारीख दे दी। तारीख सुनकर आरोपी युवक ने जज से अनुरोध किया कि उसे कुछ अंतराल के बाद तारीख दी जाए। जब न्यायाधीश महोदय ने कारण पूछा तो गरीब युवक ने बताया कि उसे इतनी दूर पातालकोट से आना पड़ता है। चूंकि जज पातालकोट की भौगोलिक परिस्थितियां जानते थे तो उन्होंने पूछा, 'तो क्या हुआ? कई बस सेवाएं हैं और तुम एक घंटे में यहां पहुंच जाओगे।' उसने कहा, 'जज साहब, मेरे पास पैसा नहीं है। मैं पूरे 85 किलोमीटर चलकर आया हूं और कल दोपहर बाद 3 बजे रवाना हुआ था। तीन जगह रुकने के बाद मैं आज सुबह 10 बजे आपकी अदालत में पहुंच सका हूं। मैं तीन वक्त का भोजन साथ लाया था, जो खत्म हो गया है। अब मैं चलना शुरू करूंगा और कल पहुंच पाऊंगा और वह भी बिना किसी भोजन के, क्योंकि साथ लाया सारा भोजन तो खत्म हो चुका है और खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। अत: मुझे कुछ आराम की जरूरत होगी ताकि मैं अगली सुनवाई की यात्रा शुरू कर सकूं।' उसकी दास्तां सुनकर तो जज महोदय तो स्तब्ध रह गए। उन्हें अहसास हुआ कि यदि उन्होंने उस पर जुर्माना लगाया भी तो यह चुका नहीं सकेगा। चूंकि प्रोबेशन ऑफ आफेंडर्स एक्ट में न्यायिक विवेक का प्रावधान है कि या तो चेतावनी देकर आरोपी को क्षमा कर दे अथवा बॉन्ड लिखवा ले कि वह अगले तीन साल तक ऐसी कोई हरकत फिर नहीं करेगा। दोनों ही मामले में वह आरोपी को तत्काल रिहा कर सकते हैं। जज महोदय ने दूसरा विकल्प चुना, जिसके तहत बॉन्ड की अवधि गुजरने के बाद आरोपी बॉन्ड के नियमों के बंधनों से अपने आप मुक्त हो जाता है। इस तरह न्यायाधीश ने उसे फिर आने की झंझट से ही मुक्त कर दिया। लेकिन वे यही तक नहीं रुके। उन्हें उस गरीब युवक की चिंता हो रही थी। बाहर से वे तटस्थ जज दिखाई दे रहे थे लेकिन, भीतर से उनका हृदय युवक की व्यथा-कथा से द्रवित हो गया था। 
फिर उन्होंने अपना पर्स निकाला और साथ आए पुलिसकर्मी को पैसे देकर कहा कि वह उसे कोर्ट के कैंटीन में ले जाकर भोजन कराए, उसे जाने के लिए बस का टिकट दिलवाए और यह पक्का करे कि वह बस में सवार हो जाए। जज ने उसे पैसे नहीं दिए, क्योंकि वह तथा उसका परिवार इतना भूखा था कि उन्हें लगा कि पैसे देने पर यह बिना खाए-पीए फिर पैदल जाएगा ताकि उस पैसे से परिवार के लिए खाने को कुछ ला सके। 
इस शनिवार को मैंने यह कहानी मध्यप्रदेश स्टेट ज्युडिशियल एकेडमी,जबलपुर में सुनी, जहां मुझे एक व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया गया था, जिसमें राज्य का पूरा न्यायिक तंत्रमौजूद था। 
फंडा यह है कि ऊंचे पदों पर बैठे लोगों में भी हमारे जैसा दिल होता है और वे इसका इस्तेमाल उचित समय पर करते हैं। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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