Wednesday, July 26, 2017

लाइफ मैनेजमेंट: जरा ठहरकर देखें साधारण लोग भी देते हैं बड़े सबक

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
मूल रूप से हर धर्म तीन बातें स्वीकार करता है- ईश्वर है, जो भी कुछ होता है वह ईश्वर की इच्छा से होता है और किसी को पीड़ा-मुक्त करने की ताकत सिर्फ ईश्वर के पास है। मंगलवार को सुबह मैं परिवार के देवता बालाजी के
दर्शन के लिए तिरुपति जाने से पहले चेन्नई में उतरा। विमान में दिया गया नाश्ता मैं साथ लाना नहीं भूला था। आमतौर पर मैं कभी विमान का खाना खाता नहीं पर ले जरूर लेता हूं। मैं इसे सबसे पहले दिखाई देने वाले जरूरतमंद को दे देता हूं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। लेकिन, चेन्नई में मुझे पता था कि वह पहला व्यक्ति कौन होगा। त्रिशुलाम उपनगर स्टेशन के सब-वे पर बैठा भिखारी। यह उपनगर चेन्नई एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशन को जोड़ता है। कई वर्षों से तमिलनाडु की राजधानी में जब भी मैं आता हू तो विमान का अपना भोजन उसे दे देता हूं। जब भी मैं उसे ये पैकेट देता हूं, वह विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता है। साथ ही कुछ ऐसा काम करता है जो मुझे चौका देता है। भोजन लेकर वह उसे अपनी आंखों तक ले जाकर इसे छूता है। ऐसा तो हम सभी मंदिर में प्रसाद ग्रहण करते समय करते हैं। उसका यह काम मुझे याद दिलाता है कि हम उन कुछ चुनिंदा देशों में से हैं जहां भोजन को दैवत्व या दिव्यता से जोड़ा जाता है। उपनिषदों में कहा गया है कि अन्न ही ईश्वर है। जब भी आप किसी मंदिर में जाते हैं तो पहले प्रसाद दिया जाता है और आप इस प्रसाद को उत्साह से स्वीकार करते हैं, जो थोड़ा-सा भोजन होता है। बिना प्रसाद के तो तीर्थयात्रा होती है और ही उत्सव। विशेष रूप से तिरुपति जैसे मंदिर में प्रसाद की गुणवत्ता बहुत ऊंची होती है। इसका एक दाना भी तीर्थयात्री बर्बाद नहीं करते, क्योंकि वे इसे ईश्वर का आशीर्वाद मानते हैं। मैंने अपने पैरेंट्स से सुना था कि अगर तुम अन्न बर्बाद नहीं करोगे तो ईश्वर तुम्हें नियमित रूप से यह देता रहेगा, कम से कम तब जब तुम भूखे होंगे। 
यह सही है। नहीं तो क्यों मुंबई से उड़ाने भरने के बाद 35 हजार फीट की ऊंचाई पर विमान में एक सुंदर एयर होस्टेस द्वारा फूड सर्व करते समय चेन्नई के इस उपनगर में बैठे भिखारी का विचार मेरे दिमाग में आना चाहिए। मेरा पक्का भरोसा है कि ईश्वर मेरे विचारों में इस भिखारी को लाए और मुझसे विमान में भोजन स्वीकार करवाया, उसे बैग में रखवाया और भिखारी काे दिलवाया। उसे भोजन देने का दूसरा कारण यह था कि वह अपंग है। किसी तरह उसने मुझे पहचान लिया और पूछा बहुत दिनों बाद? मैंने कहा हां, लेकिन उसने बीच में ही कहा- सर, क्या आप इसे उस कोने पर बैठे व्यक्ति को दे देंगे, क्योंकि वो चल नहीं सकता। उसने इशारे से उपनगर स्टेशन का दूसरा कोना दिखाया, जो मुख्य मार्ग की ओर जाता है, रेलवे स्टेशन की ओर नहीं। मैं गया और भोजन उसे दे दिया। लौटा तो मैंने उससे पूछा- तुमने खाने से इंकार क्यों कर दिया। उसने जवाब दिया, सर मेरी इतनी हिम्मत कहां कि आपके लाए खाने से इंकार कर सकूं, लेकिन मैं जानता हूं कि उसने कल से कुछ नहीं खाया है, इसलिए मैंने इसे उसके साथ साझा करने का सोचा। इससे ज्यादा कुछ नहीं। 
आंसू मुझे आने ही वाले थे और मुझे याद आया कि हमारे उपनिषद भी कहते हैं कि जब भोजन ईश्वर से जुड़ जाता है तो आप इसे अपने आप से नहीं जोड़ सकते,असल में आप अधिक नहीं खा सकते। आप इसे जमा नहीं कर सकते। इसे दूसरों से साझा कर सकते हैं। जैसा कि आप तिरुपति लाडु को बांटते हैं सभी के साथ। मेरा भरोसा कीजिए अगली बार जब मैं फिर इस शहर में आऊंगा, उसके लिए फिर भोजन लाऊंगा, क्योंकि वह इसका सम्मान करता है और मैं उसके ईश्वर का संदेशवाहक हो सकता हूं। 
फंडा यह है कि यदि अाप अपनी ज़िंदगी की रफ्तार धीमी करेंगे तो पाएंगे कि छोटे लोग अापको जीवन के बड़े सबक दे जाते हैं। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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