किसी भी स्तर के सरकारी स्कूल में दाखिले की होड़ दुर्लभ बात है। प्राथमिक शिक्षा में तो आसपास ऐसे स्कूल ढूंढ़ना नामुमकिन है जो पढ़ाई और सुविधाओं के लिहाज से छात्रों को आकर्षित कर सकें, लेकिन माध्यमिक
शिक्षा में भी ऐसे गिने-चुने स्कूल ही हैं जहां एडमिशन के लिए लंबी लाइनें लगती हों। पंजाब में मोगा के एक गांव खासा में सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल एक उदाहरण बनकर सामने आया है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। यह स्कूल सुविधाओं और पढ़ाई के मामले में महंगी फीस वाले निजी स्कूलों से भी आगे है। बास्केटबॉल और बैडमिंटन कोर्ट, साइंस पार्क, सात लाख रुपये का आरओ सिस्टम, वातानुकूलित कंप्यूटर रूम, 50 फीट लंबी डाइनिंग टेबल, सांस्कृतिक प्रयोगशाला, लाइब्रेरी, गणित प्रयोगशाला सहित अत्याधुनिक सुविधाएं इस स्कूल को खास बनाती हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह सारी व्यवस्था बिना सरकारी फंड के की गई है। आश्चर्य नहीं कि इस स्कूल में बच्चों को प्रवेश दिलवाने के लिए लोगों की लाइन लगी रहती है। लोग प्राइवेट स्कूलों से अपने बच्चों को निकालकर यहां प्रवेश दिलवाते हैं। यह चमत्कार हुआ है स्कूल प्रिंसिपल गुरदर्शन सिंह बराड़ की मेहनत से। उन्होंने साबित कर दिया है कि यदि लगन व ईमानदारी हो तो आज भी सरकारी स्कूलों की तस्वीर बदली जा सकती है। वह बताते हैं कि 2009 में जब उनकी तैनाती हुई तो गंदगी व अव्यवस्था के कारण स्कूल की तरफ कोई देखता तक नहीं था। फिर उन्होंने सफाई शुरू की। बच्चों, स्कूल स्टॉफ का भी हौसला बढ़ा और वे भी सफाई करने लगे। यह जिले का आदर्श स्कूल बन गया है। फीस न के बराबर है और रिजल्ट सौ प्रतिशत। उन्होंने वेतन से भी स्कूल पर काफी पैसे खर्च किए हैं।
बढ़ती गई छात्रों की संख्या: इस स्कूल में निजी स्कूलों जैसी सुविधाएं मिलने लगीं तो बच्चों की संख्या तीन सौ से बढ़कर साढ़े चार सौ हो गई। अब स्थिति यह है कि स्कूल में प्रवेश देने से मना करना पड़ रहा है, क्योंकि सीटें तुरंत फुल हो जाती हैं। गुरदर्शन के बेहतरीन कार्य को देखते हुए सरकार ने अब उन्हें जिला शिक्षा अधिकारी बना दिया है। स्कूल की तस्वीर बदलने में स्टॉफ, गांववासियों के साथ-साथ कुछ एनआरआई और एक डेरे का सहयोग भी उल्लेखनीय रहा।
स्कूल की कायापलट करने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। शुरुआत में बहुत मुश्किलें आईं। 2011 में पत्नी गुरजीत कौर का तबादला भी इसी स्कूल में बतौर लेक्चरर हो गया। इसके बाद कुछ राह आसान हुई। बिना सरकारी सहायता के स्कूल की तस्वीर बदलने से मन को अब काफी सुकून मिलता है। - गुरदर्शन सिंह, प्रिंसिपल (अब डीईओ)
चार साल पहले तक गांव के पढ़े-लिखे लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाना स्टेटस के खिलाफ समझते थे, लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। लोगों को इसी स्कूल में एडमीशन चाहिए। - संत गुरमीत सिंह, गांव के डेरा प्रमुख।
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साभार: जागरण समाचार
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