Monday, July 4, 2016

बात क़ानून की: चर्च में मिले तलाक पर भी सवाल

मुस्लिमों के तीन तलाक के साथ ही चर्च से मिला तलाक भी सवालों के घेरे में है। सुप्रीम कोर्ट इसकी वैधानिकता पर विचार कर रहा है। कोर्ट में एक जनहित याचिका लंबित है जिसमें चर्च से मिले तलाक को कानूनी मान्यता दिए जाने की मांग की गई है। याचिका में कहा गया है कि चर्च से मिले तलाक पर सिविल कोर्ट की मुहर लगना
जरूरी न हो। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मंगलौर के रहने वाले वरिष्ठ वकील क्लेरेंस पायस की इस जनहित याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने गत वर्ष अगस्त में विचार के लिए स्वीकार कर लिया था। लेकिन जब करीब एक साल बाद भी मामला नियमित सुनवाई पर नहीं आया तो उन्होंने अर्जी दाखिल कर कोर्ट से जल्द सुनवाई की गुहार लगाई है। इस पर सुप्रीम कोर्ट सोमवार को विचार करेगा। मामला यह है कि ईसाइयों के धर्म विधान के मुताबिक कैथोलिक चर्च में धार्मिक अदालत में पादरी द्वारा तलाक व अन्य डिक्रियां दी जाती हैं। सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता की ओर से पैरोकारी कर रहे वकील एएस भस्मे का कहना है कि चर्च द्वारा दिए जाने वाले तलाक की डिक्री के बाद कुछ लोगों ने जब दूसरी शादी कर ली तो उन पर बहुविवाह का मुकदमा दर्ज हो गया। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट यह घोषित करे कि कैनन लॉ (धर्म विधान) में चर्च द्वारा दी जा रही तलाक की डिक्री मान्य होगी और इस पर सिविल अदालत से तलाक की मुहर जरूरी नहीं है। हालांकि सरकार ने याचिका का विरोध किया है। सरकार की ओर से दाखिल जवाब में कहा गया है कि मांग स्वीकार नहीं की जा सकती क्योंकि तलाक अधिनियम लागू है और कोर्ट उसे वैधानिक भी ठहरा चुका है। यह एकमात्र मुद्दा नहीं है जो सुप्रीम कोर्ट में लंबित हो। एक अन्य ईसाई व्यक्ति ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर रखी है जिसमें तलाक अधिनियम की धारा 10ए की उपधारा (1) को चुनौती दी गई है। ईसाई धर्मावलंबी को तलाक के लिए दो वर्ष तक अलगाव में रहने की शर्त है जबकि अन्य कानून स्पेशल मैरिज एक्ट व हिन्दू विवाह अधिनियम में यह अवधि एक वर्ष की है।
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साभारजागरण समाचार 
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