एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
स्टोरी 1: 16 साल की अपराजिता पद्मपाणि आचार्य ने कभी अपने पिता को नहीं देखा, लेकिन उनके बारे में सुना बहुत है। कुछ मां से और बहुत कुछ दादा से। जब अपराजिता मां की कोख में थी, पिता की मौत हो गई थी। उनका परिवार कटक का रहने वाला है, लेकिन फिलहाल हैदाराबाद में रहता है। वे लॉ की पढ़ाई कर रही हैं। वह सैन्य बल में शामिल होना चाहती है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। पद्मपाणि जगन्नाथ आचार्य भुवनेश्वर में एक इंस्टीट्यूट में होटल मैनजमेंट के छात्र थे। वे काफी धार्मिक व्यक्ति थे। हमेशा अपने साथ पॉकेट साइज गीता रखते थे और सुबह-शाम इसे पढ़ते थे। अपराजिता ने अपने पिता की बहादुरी की बहुत सारी कहानियां अपने दादा जगन्नाथ आचार्य से सुनी हैं। दादा विंग कमांडर थे और 1965 और 1971 के युद्धों में सीधे रूप से शामिल रहे थे। साथ ही वे बहुत अच्छे स्टोरी टेलर भी हैं। उन्होंने उसे पिता की कई धार्मिक और बहादुरी की कहानियां सुनाई हैं, जिसमें एक बार पिता द्वारा घायल हिमालयी भालू के बच्चे को बचाने की कहानी भी शामिल है। उन्होंने उस भालू की ठीक होने तक पूरी देखभाल की थी। फिर उसे जंगल में छोड़ दिया था।
अपराजिता ने यह भी सुना है कि कैसे वे हर पार्टी और सोशल गेदरिंग में पॉपुलर हो जाते थे और मेजबान तथा मेहमान दोनों को ही अपनी बात करने और हंसाने की कला से मोहित कर लेते थे, लेकिन जिस तरह से उन्होंने 60 दिन के करगिल युद्ध में दुश्मन से लोहा लिया उससे प्रभावित होकर अपराजिता ने सेना में जाने का फैसला किया है। वे 2 राजपुताना राइफल्स में थे और पाकिस्तान के कब्जे वाली तोलोलिंग की चोटी से उन्हें खदेड़ने की कोशिश कर रहे थे। ये दुर्जेय काम था। 28 जून 1999 को इसी जिम्मेदारी को निभाते हुए उन्होंने अपनी जान दे दी थी। हां, यह कहानी उन्होंने कई बार अपने दादा से सुनी है। अपने पिता मेजर पद्मपाणि आचार्य की बहादुरी की इस कहानी के कारण ही अपराजिता में भी देश की सेवा के प्रति जज्बा पैदा हुआ। उनके पिता ने सीमाओें की रक्षा करते हुए जान दे दी और इसके लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र दिया गया। उनके परिवार में पिता की बहादुरी की कई कहानियां हैं। उनके दादा के बड़े भाई लेफ्टिनेंट कर्नल केएम आचार्य सेना में शामिल होने वाले परिवार के पहले सदस्य थे, जबकि उनके पिता के छोटे भाई अभी भी सेना में हैं।
स्टोरी 2: सोमवारको जब अपराजिता करगिल दिवस मनाने की तैयारी कर रही थी तब राजस्थान के हासियावास गांव के सरकारी उच्च माध्यमिक स्कूल के छात्र शिक्षा विभाग के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। वे नारे लगा रहे थे, 'अगर शिक्षा नहीं दे सकते तो टीसी (ट्रांसफर सर्टिफिकेट) दो'। स्कूल में 200 छात्र हैं और सिर्फ दो टीचर। हासियावास अजमेर जिले के श्रीगंगानगर ब्लॉक का दूरस्थ गांव है। कई तरह के प्रयासों के बाद भी कोई टीचर वहां काम नहीं करना चाहता। छात्रों ने कलेक्टर को ज्ञापन भी दिया है। विरोध प्रदर्शन करने वालों में छात्राएं भी थीं और जिस जमीन पर यह स्कूल संचालित होता है वह गांव वालों की ही जमीन है। इस तरह के विरोध राजस्थान में नए नहीं हैं। हर साल इस तरह के छात्रों के आंदोलन अनसुने कर दिए जाते हैं। सिर्फ विरोध कर रहे छात्रों को जीत का एहसास देने के लिए प्रशासन 'जुगाड़' कर पास के किसी स्कूल से टीचर को वहां शिफ्ट कर देता है। देश के लगभग सभी राज्यों में यही हालात हैं, इसलिए हमारे बच्चे मानने लगे हैं कि विरोध ही ध्यान खींचने और सफलता का एकमात्र तरीका है।
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साभार: भास्कर समाचार
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