एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
यह परीकथाओंजैसी दास्तान है, जो 19 साल चली। किसी छोटे कस्बे में एक दंपती अपने बेटे के साथ रहते थे। पिता का कामकाज अच्छा चल रहा था। हम सब कुछ फिल्म अभिनेताओं को जानते हैं, उनके जैसी भारी आवाज वाले इस शख्स में मानवीयता भी भरपूर थी। हमेशा मदद के लिए तैयार। मां भी पति के जोड़ की थी। पत्नी, गृहिणी, मां और परिवार को वित्तीय सहयोग देने जैसी कई भूमिकाएं निभाने में वह सक्षम थी। दोनों इस बात से प्रसन्न थे और ईश्वर के प्रति रोज आभार व्यक्ति करते कि उसने उन्हें इतना अच्छा पुत्र दिया। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। पुत्र भी प्रखर बुद्धि का था और अपने दादाजी की तरह 107 साल की उम्र तक जीना चाहता था और जिस समाज में वह रहता था, उसके लिए कई भले काम करता रहता था। एक दिन उसे घर छोड़कर दूर के शहर पुणे के ख्यात फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ने जाना पड़ा। गौरवान्वित माता-पिता ने उसे जाने दिया, क्योंकि उसकी तमन्ना थी कि आगे की पढ़ाई वह अमेरिका में करे। दोनों जानते थे कि उच्च शिक्षा से ही उसकी यह तमन्ना पूरी हो सकती है। लेकिन इस परीकथा ने 20 अगस्त 2015 को अचानक मोड़ लिया, जब उनका एकमात्र पुत्र रोहित दुपहिया वाहन चलाते हुए बिजली के खंभे से टकरा गया, उसके सिर में चोट लगी और उसकी मौत हो गई। नितिन डेविड और रवीना को रात दो बजे सूचना मिली और पुणे पहुंचने तक दोनों जैसे कई बार मरे। ओठों पर चमत्कार के लिए दुआएं थीं, लेकिन अस्पताल में उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को सफेद कपड़े मेें लिपटे हुए देखा। उनके पुत्र की एकमात्र गलती थी, हो सकता है पहली ही गलती हो, कि उस मनहूस दिन उसने हेलमेट नहीं पहना था। इस तरह का वज्रपात झेलने वाले किसी भी पालक की तरह वे लगातार आंसू बहाते रहते, शायद प्रतिदिन। कभी-कभी पुत्र के हार डाले गए फोटो को देखकर मुस्काते भी इस उम्मीद में कि शायद मौत के बाद भी एक और जीवन हो और उनका पुत्र वहां खुश हो। कुछ लोगों के लिए इस मामले में कोई विकल्प नहीं है। यह जीवन की ही निरंतरता है अौर आध्यात्मिक अस्तित्व का रूप है, लेकिन नितिन और रवीना की सोच अलग थी।
उन्होंने उस मनहूस दिन की घटनाओं को फिल्म का रूप देने का निर्णय लिया। फिल्म बेटे सहित खुशहाल परिवार के साथ शुरू होती है। फिर उसका पढ़ने दूसरे शहर जाना और अचानक एक दिन बिना हेलमेट पहने दुपहिया वाहन चलाते हुए जिंदगी की डोर का बीच में ही टूट जाना। बाद में फिल्म पालकों की जिंदगी की बात करते हुए कहती है कि वे अपने प्रिय पुत्र के बिना निरर्थक जिंदगी जीते हैं। फिल्म उन सारी जगहों पर फिल्माई गई, जहां उनके पुत्र ने आखिरी कुछ घंटे बिताए थे।
फिल्म उम्मीद के बारे में है। नितिन और रवीना को उम्मीद है कि यह फिल्म देखकर कम से कम कुछ लोग तो रोज हेलमेट पहनेंगे, कुछ लोग तो सड़क पर घायल को देखकर मूकदर्शक बनने की बजाय उसे अस्पताल ले जाएंगे, कुछ पुलिस वालों अस्पतालों के लिए मृत शरीर का मतलब सिर्फ आंकड़े भर नहीं रहेंगे। डेढ़ लाख रुपए लागत की यह 19 मिनिट की फिल्म 'परिवार के लिए हेलमेट' डायरेक्टर राकेश परमार ने बिना कोई धन लिए बनाई है और स्कूल-कॉलेजों में दिखाई जा जाती है। फिर मध्यप्रदेश का निवासी वह शख्स स्टेज पर आकर रोता है, ताकि कई परिवारों के ओठों पर मुस्कान कायम रहे। हरसंभव स्थान, आयोजन और आमसभा में नितिन आयोजकों से उन्हें 30 मिनिट देने का अनुरोध करते हैं ताकि प्रत्येक परिवार की परीकथा हमेशा बनी रहे।
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साभार: भास्कर समाचार
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