डॉ. वेदप्रताप वैदिक (अध्यक्ष, भारतीय विदेश नीति परिषद)
जब तक शिक्षा में क्रांति नहीं होती, भारत महाशक्ति नहीं बन सकता, लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे नेताओं ने इस रहस्य को अभी तक समझा ही नहीं। 1968 में छपी ज्यां जेक्स सरवन श्राइबर की किताब, 'द अमेरिकन चैलेंज' ने जब इस रहस्य को खोला तो दुनिया में तहलका मच गया। श्राइबर ने सिद्ध किया कि जो अमेरिका दूसरे
महायुद्ध के पहले तक यूरोप के छोटे-छोटे राष्ट्रों से कर्ज लेता था और अपने बच्चों को वहां पढ़ने भेजता था, वह दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश इसीलिए बन गया, क्योंकि उसने शिक्षा पर जबर्दस्त ध्यान दिया। किंतु भारत में तो 'शिक्षा' शब्द को ही उड़ा दिया गया है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। शिक्षा मंत्रालय को मानव संसाधन मंत्रालय बना दिया गया है। जिस 'मनुष्य' को साध्य बनना है, उसे संसाधन बना दिया गया है। सबसे पहले तो इस मंत्रालय के नाम की शुद्धि की जाए। नाम ही अशुद्ध है तो काम शुद्ध कैसे होगा? मंत्रालय के मंत्री प्रकाश जावेड़कर ने नई शिक्षा नीति के लिए सुझाव मांगे हैं- सबसे पहला सुझाव यही है।
दुनिया के सारे संपन्न राष्ट्र शिक्षा-व्यवस्था पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 5 प्रतिशत से 8 प्रतिशत खर्च करते हैं, जबकि भारत आज तक इस आंकड़े को छू तक नहीं पाया है। कोठारी आयोग ने लगभग 50 साल पहले 6 प्रतिशत का आंकड़ा सुझाया था। आज तो वह 10 प्रतिशत होना चाहिए, क्योंकि भारत में शिक्षा की भयंकर दुर्दशा है। हमारी प्राथमिक शालाओं में लगभग 22 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं, लेकिन उन पाठशालाओं में 25 प्रतिशत अध्यापक सदा गैर-हाजिर रहते हैं। 90 प्रतिशत शालाओं में शौचालय ही नहीं हैं। कक्षाओं में भेड़-बकरी की तरह बच्चे भरे होते हैं। छतें टपकती रहती हैं। अभी कम से कम 7-8 लाख अध्यापकों की जगह खाली है। ऐसा क्यों है? क्योंकि शिक्षा-विभागों के पास पैसे नहीं हैं। यह दुर्दशा सरकारी स्कूलों की है। इनमें प्रायः ग्रामीणों, गरीबों, पिछड़ों और आदिवासियों के बच्चे पढ़ते हैं। उनकी संख्या लगभग 70 प्रतिशत है। देश के 30 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। ये ज्यादातर शहरी, ऊंची जातियों, मध्यम और उच्च वर्ग के होते हैं। जो लोग देश चलाते हैं यानी नेता और नौकरशाहों और सेठों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते हैं और जो लोग खेती-मजदूरी-नौकरी करते हैं, उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में सड़ते हैं। यदि हमें शिक्षा में क्रांति करनी है तो सारे देश की पाठशालाएं एक-जैसी करनी होंगी। गैर-सरकारी पाठशालाएं चलें जरूर, लेकिन उनकी भर्ती-नीति, फीस-नीति और पाठ्यक्रम आदि पर कड़ी निगरानी हो। उनमें देश के 70 प्रतिशत गरीबों और वंचितों के बच्चों को प्रवेश मिले और वे वहां नि:शुल्क पढ़ें। देश के सभी सांसदों, विधायकों, पार्षदों, फौजियों, जजों यानी सरकार से वेतन पाने वाले सभी लोगों के लिए यह अनिवार्य हो कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाएं। मेरे इस मौलिक सुझाव पर पिछलों दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुहर लगा दी और उत्तर प्रदेश सरकार को उसने आदेश दिया है कि वह यह सुझाव लागू करे। इसके लागू होते ही भारतीय शिक्षा का स्तर अपने आप ऊंचा उठ जाएगा। भारतीय शिक्षा का हाल कितना बुरा है, इसका अंदाज आप इसी से लगा सकते हैं कि 10 साल के 50 प्रतिशत बच्चे कागज पर लिखा या छपा हुआ ठीक से पढ़ नहीं सकते। 60 प्रतिशत बच्चे जोड़-बाकी और गुणा-भाग नहीं कर सकते। 14 साल के 50 प्रतिशत बच्चे पढ़ाई से तंग आकर भाग खड़े होते हैं। 'पीसा' नामक एक अंतरराष्ट्रीय शिक्षा जांच आयोग ने बताया कि 15 वर्ष के भारत के बच्चों का स्तर सारी दुनिया में सबसे नीचे पाया गया। भारत से नीचे सिर्फ किर्गिज़स्तान था। बहुत पिछड़े हुए देश का नाम भी आपने नहीं सुना होगा। भारत की सरकारें दावा करती हैं कि देश के 70-72 प्रतिशत लोग साक्षर हैं। साक्षर हैं यानी अपना नाम लिख सकते हैं और अखबार पढ़ सकते हैं। उन्हें समझ सकते हैं या नहीं, कुछ पता नहीं। सचमुच शिक्षित लोग कितने हैं, इसका पता चले तो आप दंग रह जाएंगे।
तो क्या किया जाए? सबसे पहले मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए। सारे देश के बच्चों को विभिन्न विषय पढ़ाने के लिए उन पर हिंदी या अंग्रेजी माध्यम थोपा जाए। यदि हिंदी भाषी बच्चे हिंदी माध्यम से पढ़ना चाहें तो जरूर पढ़ें, लेकिन अंग्रेजी माध्यम क पढ़ाई पर पूर्ण प्रतिबंध हो। दुनिया के किसी शक्तिशाली और संपन्न देश में विदेशी भाषा को पढ़ाई का माध्यम नहीं रखा गया है। इसकी वजह से हमारे बच्चों की मौलिकता नष्ट होती है, उनकी विचारशक्ति घटती है, वे रट्टू तोते बन जाते हैं, वे विषयों को सीखने में देर लगाते हैं, उनमें गुलाम मानसिकता पैदा हो जाती है। इसीलिए भारत के 22 करोड़ बच्चों में मुश्किल से 2 करोड़ बच्चे ही स्नातक स्तर तक चल पाते हैं। शिक्षा का प्रसार सौ फीसदी करना है और उसका स्तर उठाना है तो विदेशी माध्यम की पढ़ाई के विरुद्ध संवैधानिक संशोधन करना पड़े तो वह भी करना चाहिए। यदि सरकारी नौकरियों की भर्ती में अंग्रेजी की अनिवार्यता हटा ली जाए तो अपने बच्चों पर उनके माता-पिता जुल्म क्यों करेंगे? वे हिरण पर घास क्यों लादेंगे? वे उन्हें 'पब्लिक स्कूलों' की चक्की में क्यों पिसने देंगे?
स्कूलों और काॅलेजों में पाठ्यक्रम मूल रूप से वही है, जो मैकाले के जमाने में था। बच्चों को रट्टू तोता बनाने की बजाय उपनिषदों के नचिकेता की तरह जिज्ञासु प्रश्नकर्ता बनाया जाए। छात्रों में मौलिक शोध की प्रवृत्ति पैदा की जाए। उन पर कागजी डिग्रियों का बोझ लादने की बजाय उन्हें काम-धंधों का कौशल सिखाया जाए। सारे देश में बच्चों को व्यायाम, आसन, प्राणायाम और ध्यान सिखाया जाए तो उनकी कार्यशक्ति दोगुनी हो जाएगी और वे लंबे समय तक काम करते रहेंगे। परीक्षा सिर्फ किताबों की ली जाए। उसमें व्यायाम, नैतिक शिक्षा, आचरण, अनुशासन, समाज-सेवा आदि के गुणांक भी जोड़े जाएं। यदि बच्चों को छोटी उम्र से ही काम-धंधों का कौशल सिखाया जाएगा, तो उनकी आंतरिक शक्तियों का विकास अपने आप होगा और ये सारे सद्गुण विकसित करने में उन्हें आसानी होगी।
यदि शिक्षा से सिर्फ नौकरियां मिलें और अंदर की आंख खुले तो वह शिक्षा बेकार है। शिक्षा वह कुंजी है, जो व्यक्ति को मनुष्य बनाती है और राष्ट्र को महाशक्ति! यह कुंजी यदि हम ठीक से घुमाना सीख लें तो हमारे नौजवानों में इतनी प्रतिभा और परिश्रम की शक्ति है कि भारत का स्थान दुनिया के पहले दो-तीन देशों में हो सकता है। (येलेखक के अपने विचार हैं।)
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साभार: भास्कर समाचार
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